ओम थानवी संतरेवाला संपादक,जनसत्ता के माध्यम से पीत पत्रकारिता : प्रो.जगदीश्वर चतुर्वेदी

प्रो.जगदीश्वर चतुर्वेदी की जनसत्ता के संपादक ओम थानवी को चुनौती, जनसत्ता के गिरते सर्कुलेशन को बढ़ा कर दिखाएँ

om-thanvi-vs-jagdishwarsantकलकत्ता वि.वि. के प्रो.जगदीश्वर चतुर्वेदी और जनसत्ता के संपादक ओम थानवी के बीच प्रेमचंद पर प्रकाशित आलेख को लेकर फेसबूकिया आक्रमण का दौर जारी है. कोई पीछे हटने के लिए तैयार नहीं. लेकिन इस वाद – विवाद के गर्माहट में जनसत्ता अखबार से जुड़ी कुछ तथ्यात्मक बातें भी सामने आयी है. मसलन जगदीश्वर चतुर्वेदी ने यह जनसत्ता के संपादकीय पर वाजिब सवाल उठाया है. साथ में थानवी जी के संपादकीय में जनसत्ता के घटते सर्कुलेशन को लेकर भी सवाल किए हैं.

प्रो.जगदीश्वर चतुर्वेदी ओम थानवी को संतरेवाला संपादक कहते हुए लिखते हैं कि ओम थानवी की संपादनकला को इण्डियन एक्सप्रेस की परंपरा में न देखा जाय . वे तो नागपुरी परंपरा में आते हैँ, हम तो उनको संतरेवाला संपादक कहेंगे . प्रेमचंद – निराला पर थानवी का हमला संतरा साहित्य का हिस्सा है !

ओम थानवी सुनियोजित ढंग से उदार विचारों के लेखकोँ पर हमले करवा रहे हैँ . इन हमलों से कंजरवेटिव संगठनों और विचारों को मदद मिल रही है .
ओम थानवी ने जनसत्ता के पन्नों का प्रेमचद को कलंकित और अपमानित करने के लिए दुरुपयोग किया है . थानवी ने अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर प्रेमचंद के खिलाफ अपशब्दों और गालियाँ तक छापी हैं , गालियोँ को पत्रकारिता का अंग बनाने के लिए थानवी को पद्मविभूषण दिया जाय .

ओम थानवी और जनसत्ता का प्रिंटक्राइम यह है कि उन्होंने एक थर्डग्रेड लेखक के लिखे आधारहीन लेखों के जरिए प्रेमचंद का चरित्रहनन किया है . यह पीत पत्रकारिता है .

हम ओम थानवी को चुनौती देते हैं कि वे हमारे राष्ट्रपति के खिलाफ गाली-गलौज या चरित्रहनन की भाषा में बेसिरपैर की बातों वाला लेख किसी भी स्वनामधन्य धर्मवीर से लिखवाएं और जनसत्ता में छापें फिर देखते हैं कि प्रेस कौंसिल और भारत सरकार उनकी कैसी गति बनाती है । लेखक और संपादक जेल के सीखचों में रहते हैं या बाहर.

ओम थानवी किस तरह के सक्षम संपादक हैं और हिन्दी से कितनाप्रेम है यह जानने के लिए जनसत्ता के गिरते सर्कुलेशन और स्टाफ की घटती संख्या से आसानी से समझा जा सकता है । मसलन् अब यह अखबार कोलकाता में बहुत कम पढ़ा जाता है और संभवतः अधिकांश स्टॉल पर दिखता तक नहीं है। स्टाफ की संख्या में 75 फीसदी कटौती कर दी गयी है और यही हाल दिल्ली संस्करण का है ।

ओम थानवी जबाव दें कि जनसत्ता का संपादकीय स्तर और सर्कुलेशन लगातार क्यों गिरा है और स्टाफ के लोगों को नियमानुसार सभी सुविधाएं और पगार क्यों नहीं मिल रही । क्या वजह है कि एक जमाने का महान अखबार आज स्टॉल पर नजर ही नहीं आता।

ओम थानवी और उनके गैंग की फेसबुक पर वामविरोधी चिन्ताएं देखकर मन खुश हुआ कि ये लोग कम से कम अपने जीवन पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। मसलन् इस गैंग और इनके सदर ओम थानवी ने यदि जनसत्ता अखबार को ही सुंदर और बड़ी जनसंख्या पहुँचा दिया होता तो उनकी बात में दम था ,लेकिन यह देखा गया कि ओम थानवी ने अपने समूचे संपादकीय जीवन में कोई खोजी रिपोर्ट न तो खुद लिखी और न उनके किसी महान संपादकीय लेख का ही कभी जिक्र आता है। उनके जमाने में अखबार का सर्कुलेशन गिरा, कर्मचारियों की संख्या घटी,पगार घटी, अखबार में जान नहीं रह गयी,इसके लिए क्या मार्क्सवादी जिम्मेदार हैं या ओम थानवी जिम्मेदार हैं ?

ओम थानवी की संपादकीय और बौद्धिक मेधा का लोहा हम तब मानेंगे जब वे अपने सैंकडों फेसबुक समर्थकों को जनसत्ता अखबार की बिक्री बढाने के काम में शामिल कर लें और हरेक को 1000हजार प्रति अपने इलाके में बिकवाने की जिम्मेदारी दें । क्या वे ऐसा कर पाएंगे ? यदि वे इस काम में 10फीसद फेसबुक मित्रों या लाइक करने वालों को सक्रिय कर पाए तो हम समझेंगे कि उनका लेखन दमदार है वरना तो झाग है उनके लेखन में ।

ओम थानवी और उनके गैंग के सभी पोस्ट देख जाइए आपको मनमोहनसिंह के प्रति कम से कम लिखा मिलेगा, उनकी आर्थिक नीतियों पर तो और भी कम लिखा मिलेगा। इसकी तुलना में मार्क्सवाद पर लिखा खूब मिलेगा। ओम थानवी जबाव दें भारत में मनमोहन का अर्थशास्त्र समस्या है या मार्क्सवाद? भारत में मार्क्सवाद हाशिए के बाहर है और आप उसे अहर्निश गरियाते हैं। लेकिन मनमोहनसिंह के अर्थशास्त्र पर कभी -कभार भी नहीं लिखते ऐसा क्यों?

नोट : प्रो.जगदीश्वर चतुर्वेदी ने फेसबुक पर लिखा है कि अपनी बात वे कह चुके हैं, सो इस बहस को यही विराम देते हैं. उनकी टिप्पणी :
Jagadishwar Chaturvedi : जैसाकि हिन्दी का चलन है कि किसी भी विषय पर बहस करो बहस अंत में व्यक्तिगत हमले और चरित्रहनन में तब्दील हो जाती है। ओम थानवी ने सभी नागरिक मर्यादाएं तोड़कर प्रेमचंद को कलंकित करने वाले की असभ्यभाषा को जिस तरह जनसत्ता अखबार में छापा था उससे हमारी धारणा बनी थी थी कि ओम थानवी नामक संपादक लेखकों का सम्मान करना नहीं जानता । फेसबुक पर चली बहस में ओम थानवी ने इस धारणा को पुख्ता किया है। हम उम्मीद करते हैं कि ओम थानवी हिन्दी के लेखकों पर व्यक्तिगत हमले बंद करेंगे वरना हम उनको इसी तरह सरेआम सवालों के कठघरे में घेरेंगे और वे आंय-बांय करने को मजबूर होंगे। फिलहाल प्रेमचंद पर जनसत्ता में छपी टिप्पणी के खिलाफ हम अपना प्रतिवाद यहीं खत्म करते हैं। इस प्रतिवाद का मकसद ओम थानवी को निजी तौर पर निशाना बनाना नहीं था। लेकिन ओम थानवी ने अपनी असली इमेज यहां पेश करके यह सिद्ध किया है कि हिन्दीप्रेस और खासकर जनसत्ता अखबार प्रेमचंद की स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा से कोसों दूर है और ओम थानवी संतरा साहित्य में मशगूल हैं।ओम थानवी को संतरा संगत मुबारक हो।

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