“मीडिया जब ‘ प्रहरी ‘ की भूमिका में होता है तब ही वो जनता के हितों का रक्षक होता है”
हाल में बिहार के सारे अखबारों ने “नौ सालों के कथित सुशासनी सरकार के रिपोर्ट -कार्ड ” को जिस तरीके से परोसा और जिस तरह से वो नीतीश जी के चुनावी –अभियान की मुहिम ‘सम्पर्क-यात्रा’ को परोस रही है वो अपने आप ही नीतीश जी की सरपरस्ती वाले सुशासन के मीडिया -मैनेजमेंट की सच्चाई को बयाँ करता है . पढ़ने के बाद यही लगता है कि मीडिया अपनी आलोचक और प्रहरी की भूमिका को पूर्णरूप से भूलकर “दरबारी ” की भूमिका बखूबी निभा रहा है . मीडिया को “चाटुकारिता” की भूमिका का परित्याग कर अपने “सचेतक” की भूमिका पर मंथन करने की आवश्यकता है और अगर संभव हो तो आम जनता को भटकाकर भुलावे में रखने की बजाए अपनी नीति में बदलाव कर शासन और व्यवस्था की सच्चाई भी उजागर करने की कोशिश होनी चाहिए . मीडिया जब “प्रहरी ” की भूमिका में होता है तब ही वो जनता के हितों का रक्षक होता है . आज मीडिया को यथार्थ के उल्ट स्थितियों को शब्दों से चमकीला -भड़कीला बनाकर जनता के सामने परोसने से परहेज करना होगा नहीं तो मीडिया की विश्वसनीयता (जो आज“प्रश्न-चिह्न ” के घेरों में है ) का विनाश तय है . वर्त्तमान बिहार के पिछ्ले नौ सालों की बात करूँ तो यहाँ मीडिया नेता विशेष , शासन और शासक को “प्रोडक्ट” के रूप में बेच रहा है.
बिहार के संदर्भ में विशेष कर अखबारों को अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी समझना और बखूबी निभाना भी होगा . नेता विशेष , शासन व् सत्ता के “गुण-गान ” का परित्याग कर खबरों के साथ मानवीय पहलुओं को भी उठाना होगा . सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण और जिम्मेवारी वाला कार्य है कुव्यवस्था की पोल खोलना. इतिहास गवाह है कि जब-जब पोल खुली है , सुधार हुआ है . मजबूरन शासन को आम आदमी के साथ खड़ा होना पड़ा है . अखबार केवल सत्ता के गलियारों तक ही नहीं सिमटा है , इसके सामाजिक सरोकारों के दायरे व्यापक हैं . जब आम आदमी किसी अखबार के साथ अपनेपन के साथ जुड़ता है, तो उस अखबार की जवाबदेही बढ़ जाती है और सबसे बड़ी बात यह है कि अखबारों को इस कसौटी पर खरा उतरना होता है . इसके अनेकों उदाहरण मौजूद हैं कि अखबार की ओर से चलाए गए अनेकों अभियानों का असर भी हुआ है . जब-जब अखबारों ने प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार और खामियों को जनता और सरकार के सामने निष्पक्ष और निर्भय होकर रखा, सुधार के प्रयास शुरू हुए हैं . जब ऎसा होता है तो जनता की नजरें अखबारों पर जा टिकती हैं और अखबार उनके लिए उम्मीद की किरण बन जाता है.
ये जरूरी नहीं है कि अखबार शासन-प्रशासन के प्रति सदैव आलोचनात्मक रवैया ही रखे ; जरूरत के हिसाब से शासन के साथ आम आदमी के हितार्थ सहयोग की भूमिका का निर्वहन भी करता रहे . अखबार और उससे जुड़े लोगों को ये ध्यान रखने की जरूरत है कि वे जनता के सेवक हैं, लोकतंत्र के प्रहरी हैं. पत्रकारिता अपने आप में एक “सेवा” है . सामाजिक सरोकारों, सौहार्द व खबरों की प्रमाणिकता को बनाए रखना परम दायित्व है अखबार और उससे जुड़े लोगों का . जनता का मददगार और आवाज बने रहना ही समाचार – माध्यमों ध्येय होना चाहिए . जनता के साथ जुड़कर जिस अखबार ने भी अपनी पहचान बनाई का, वही अपनी पहचान बरकरार रख पाया है . “सतत सकारात्मक प्रयास ” ही अखबारों की दुनिया का मूल-मंत्र होना चाहिए .
पत्रकारिता के क्षेत्र में जिस प्रकार से पेड न्यूज के नाम से भ्रष्टाचार के पांव फैलाने की जो भनक सुनाई दे रही है. वह चिंताजनक है . लगता है कि इस से मुक्ति के लिए देश को एक और लड़ाई लड़नी होगी, जिसमें मीडिया ही सर्वाधिक प्रभावशाली हथियार होगा . इसे अपनी भूमिका पूरी निष्पक्षता, निर्भयता और नैतिकता के साथ निभानी होगी.
अगर बिहार की ही बात की जाए तो आज बिहार के वर्त्तमान अखबार सुदूर अंचलों तक तो पहुंचने लगे हैं, लेकिन उन अंचलों के दुख-दर्द को पूरी तरह वाणी नहीं दे पा रहे हैं , उन अंचलों की समस्याओं के निदान में अखबार अपनी भूमिका का निर्वाह नहीं कर पा रहे हैं. अधिकांश अखबार राजनीतिक खबरों व राजधानी के समाचारों में ही अधिक उलझे रहते हैं. आज स्थिति यह है कि बड़े अखबारों के जिला संस्करणों की तो बाढ़ आई हुई है, जिनमें जिलों के समाचार तो उनमें स्थान पा लेते हैं, लेकिन राजधानी के पाठक उस जानकारी से वंचित रहते हैं. स्थिति यह है कि जिलों के समाचार जिलों में ही दफन हो जाते हैं. समाचार के जरिए उठने वाली समस्या निदान तक नहीं पहुंच पाती है. जैसे किसी कस्बे में बिजली की समस्या को लेकर लोगों ने आंदोलन किया, तो उस आंदोलन की खबर भी केवल उन्हीं लोगों को पढ़ने को मिलेगी, तो उनकी आवाज को कौन सुनेगा और शासन-प्रशासन पर उस समस्या के निराकरण के लिए दबाव किस प्रकार पड़ेगा ? प्रदेश के सुदूर क्षेत्रों के अभावों और समस्याओं का उपचार तो राजधानी में है, जबकि राजधानी व शासन के शीर्ष तक समस्या अखबार पहुँचा ही नहीं पा रहे हैं. किसी भी अखबार को प्रदेश का अखबार कैसे कहा जा सकता है, जब तक कि उसमें सभी क्षेत्रों के समाचारों का समावेश नहीं हो !! ईमानदारी, पेशेवर कुशलता, तेजी, आक्रामकता और सृजनशीलता की स्वतंत्रता ही अखबारों को नए आयाम प्रदान कर सकती ना की “चाटुकारिता” . टेढ़ी खीर को सीधा करने का माद्दा ही अखबारों की धूमिल पड़ती छवि को सँवार सकती है .
(आलोक कुमार,पत्रकार व् विश्लेषक )