यह पूरा सच नहीं है कि मीडिया सिर्फ बिकाऊ है.
वह ब्राह्मणवादी भी है.
बिहार का उदाहरण लीजिए. वहां के अखबार जिंदा रहने के लिए सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर हैं. औद्योगिक विकास नहीं हुआ है. कांग्रेस के शासन में भी नहीं, लालू राज में भी नहीं और बीजेपी के सुशील मोदी के नीतीश सरकार में वित्त मंत्री रहने के दौरान भी नहीं. इसलिए कॉरपोरेट विज्ञापन कम है. सरकार ही अखबारों को पालती है.
नीतीश कुमार की पिछली सरकार ने बिहार के अखबारों को सरकारी विज्ञापनों से पाट रखा था. लेकिन जब चुनाव आए, तो एक प्रभात खबर को छोड़कर सारे अखबार नीतीश-लालू गठबंधन के खिलाफ खड़े हो गए.
सारे ओपीनियन मेकिंग पोल बीजेपी के पक्ष में किए गए. प्रभात खबर संतुलित इसलिए रहा कि उसके संपादक हरिवंश को राज्यसभा में भेजकर नीतीश कुमार ने उन्हें मैनेज कर रखा था. सारे अखबारों ने पैसा नीतीश से लिया और खबरें नीतीश-लालू गठबंधन के खिलाफ छापीं.
पैसा बहुत बड़ी चीज है. लेकिन जाति उससे भी बड़ी चीज है.
दिलीप मंडल,वरिष्ठ पत्रकार-