कोरोना के जानलेवा संक्रमण से कई गुना ज्यादा भयावह खतरे

सैकड़ों किलोमीटर की दूरी पैदल तय करेंगे, रास्ते में खाने पीने आराम करने का कोई ठिकाना नहीं, लुटने पिटने का डर अलग. कोरोना के जानलेवा संक्रमण से कई गुना ज्यादा भयावह खतरे. पर फिर भी इसे चुन रहे हैं क्योंकि इस आग के दरिया के उस पार अपने हैं. यहाँ इन शहरों में, सरकार में, सरकारी एजेंसियों में कहीं कोई अपनापन नहीं. हमारे लोकतंत्र की इससे बड़ी विफलता क्या होगी.

कोरोनावायरस के कारण भारत में 21 दिनों का लॉकडाउन चल रहा है. इसका असर यूं तो पूरे हिन्दुस्तान पर पड़ा है लेकिन सबसे ज्यादा मार मजदूरों पर पड़ी है जो दूर दराज के राज्यों से दिल्ली – मुंबई या दूसरे प्रान्तों में कमाने आए थे. लॉकडाउन की वजह से उनके सामने रोजी -रोटी की समस्या पैदा हो गयी. डर का माहौल ऐसा बना कि कोरोना के डर को भी धत्ता बताकर वे पैदल ही अपने – अपने घरों की और निकल गए. इसी समस्या और सरकारी व्यवस्था की नाकामी पर वरिष्ठ पत्रकार प्रणव प्रियदर्शी की टिप्पणी –

व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में पहले भी ऐसे एकाधिक मौके आए हैं जब यह तय करना मुश्किल था कि ऐसा करना उचित होगा या वैसा करना. आज पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर वैसी ही दुविधा दिख रही है. जिन शहरों में लोग बरसों से मेहनत कर रहे हैं, आजीविका कमा रहे हैं, बच्चों को पढा रहे हैं, परिवार पाल रहे हैं वे शहर भी इस त्रासदी के दौरान उनमें भरोसा नहीं जगा पा रहे. खासकर जो आर्थिक रूप से कमजोर तबकों में आते हैं, वे अपनी सरकार पर, सरकारी एजेंसियों पर, उनके दावों पर, उनके वादों पर भरोसा नहीं कर पा रहे. खतरे का एहसास होते ही छटपटा उठते हैं उसी जगह पर वापस जाने को जहां से बेहतर जीवन की तलाश में इन बडे शहरों को आए थे.

सरकार ने बसें और ट्रेनें बंद करवा दीं तो पैदल निकल पड़े, सैकड़ों किलोमीटर दूर स्थित अपने गांव की ओर. जानते हैं कि वहां भी कोई खजाना नहीं रखा. वहां गरीब और मजबूर माँ बाप होंगे, वहां बेबसी और लाचारी होगी. बस इसी आस में जा रहे हैं कि कुछ भी हो वहां अपने लोग हैं. मरना भी होगा तो अपने लोगों के बीच होगा, ऐसे लोग जो हमें जानते हैं, मानते हैं, हमारी परवाह करते हैं. तो इस अपनत्व तक पहुंचने के लिए वे जान पर खेल रहे हैं. सपरिवार कूद पड़े हैं अनिश्चितता के महासागर में कि उसे तैर कर पार कर जाएंगे.

सैकड़ों किलोमीटर की दूरी पैदल तय करेंगे, रास्ते में खाने पीने आराम करने का कोई ठिकाना नहीं, लुटने पिटने का डर अलग. कोरोना के जानलेवा संक्रमण से कई गुना ज्यादा भयावह खतरे. पर फिर भी इसे चुन रहे हैं क्योंकि इस आग के दरिया के उस पार अपने हैं. यहाँ इन शहरों में, सरकार में, सरकारी एजेंसियों में कहीं कोई अपनापन नहीं. हमारे लोकतंत्र की इससे बड़ी विफलता क्या होगी.

पर हद यह नहीं, यह है कि इस भीषण पराक्रम का परिचय दे रहे लोगों को अपनी सरकार से उसकी एजेंसियों से इतनी भी मदद नहीं मिल रही जितनी मदद हवा कर देती उनकी गति की दिशा में बहकर. उलटे कहीं पुलिस थक कर चूर हुए लोगों को घुटनों पर चलने को मजबूर करती है तो कहीं बीच राह में जबरन रोक कर वापस उन्हीं शहरों में लौटने को मजबूर करती है.

इन सबसे ज्यादा त्रासद यह है कि बतौर नागरिक मैं यह भी नहीं तय कर पा रहा कि इन लोगों की राह रोक लेने का यह फैसला सही है या गलत. मेरे पास जरूरी सूचनाएं नहीं हैं, कि मैं समझ सकूं बीमारी और वायरस के फैलाव की क्या स्थिति है, सरकार की क्या तैयारियां हैं, उसकी क्या रणनीति है, वह इन लोगों को जहां वे हैं वहां बेहतर सुरक्षा और रखरखाव का भरोसा दे सकती है या नहीं, उन्हें उनके गंतव्यों तक पहुंचा कर वहीं आइसोलेशन में रखवाने की व्यवस्था कर सकती है या नहीं, नहीं तो क्यों नहीं?

अब ये सूचनाएं नहीं हैं तो इनमें से किसी भी कार्रवाई को सही या गलत कहने की मेरी स्थिति भी नहीं है. सो मैं कुछ नहीं कर सकता. बस अपने उन देशवासियों की दुर्दशा को देख और महसूस कर सकता हूं, उस पर दुखी हो सकता हूं, बेबसी में हाथ पैर पटक सकता हूं और यह उम्मीद कर सकता हूं कि सरकारी तंत्र वही कर रहा हो जो आज के हालात में सबसे उपयुक्त है. अगर ऐसा न कर रहा हो तो जल्द से जल्द अपनी भूल सुधार कर वैसा करने लग जाए. (वरिष्ठ पत्रकार Pranava Priyadarshee के एफबी वॉल से साभार)

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