मोदी नहीं योगी मॉडल चाहिये ?

पुण्य प्रसून बाजपेयी,वरिष्ठ पत्रकार-

क्या इतिहास बीजेपी सत्ता को दोहरा रहा है या फिर एक नया इतिहास गढ़ा जा रहा है। दरअसल वाजपेयी आडवाणी की जोडी और मौजूदा वक्त में मोदी योगी की जोड़ी एक समान लकीर भी खींचती है, जिसमें एक सॉफ्ट तो दूसरा हार्ड । लेकिन वाजपेयी आडवाणी के दायरे को मोदी योगी की जोड़ी एक विस्तार भी देतीहै क्योंकि यूपी सरीखे राज्य का कोई प्रयोग केन्द्र सरकार को वैसे ही डिगा सकती है जैसे एक वक्त कल्याण सिंह ने पीवी नरसिंह राव को तो मोदी ने गुजरात सीएम रहते हुये वाजपेयी को डिगाया। और मोदी जब 2002 से आगे निकलते हुये दिल्ली पहुंच गये तो क्या पहली बार योगी के सामने भी ऐसा मौका आ खड़ा हुआ है, जहां गोरखपुर से लखनऊ और लकनऊ से दिल्ली का रास्ता भी तय हो सकता है। फिलहाल ये सवाल है । लेकिन इस सवाल के गर्त में तीन सवाल छुपे ही हुये हैं। मसलन पहला सवाल क्या मोदी की छवि योगी की छवि तले बदल जायेगी। दूसरा, क्या मोदी की तर्ज पर योगी अपनी छवि बदलने के बदले विस्तार देंगे। तीसरा , यूपी 2019 के लिये दिल्ली का रास्ता बनायेगा या रोकेगा । ये सारे सवाल इसलिये क्योकि योगी के सीएम बनते ही राम मंदिर ,यूनिफॉर्म सिविल कोड और तीन तलाक़ के मुद्दे भी छोटे हो गये । यानी भारतीय राजनीति में जिन सवालो को लेकर सत्ता लुकाछिपी का खेल खेलती रही वह सवाल योगी की पारदर्शी राजनीति और छवि के आगे सिमट भी गयी । यानी चाहे अनचाहे हर वह प्रयोग जिससे मोदी सरकार पल्ला झाड़ सकती है और योगी सवालों को मुकाम तक पहुंचाकर खुद को ही बड़ा सवाल बनते चले जाते है । तो कौन सी छवि चुनावी लाभ पहुंचाती है जब एसिड टेस्ट इसी का होने लगेगा तब विपक्ष की राजनीति कहा मायने रखेगी। और 2019 में मोदी हो या 2022 तक योगी ही मोदी बन चुके हो इससे किसे फर्क पड़ेगा । क्योंकि कट्टर हिन्दुत्व की छवि मोदी तोड चुके है । कट्टर हिन्दुत्व की छवि योगी की बरकरार है । और संयोग से राम मंदिर निर्माण पर अदालत से बाहर सहमति का सुझाव देकर सुप्रीम कोर्ट ने मोदी-योगी की तरफ देश को देखने के लिये मजबूर तो कर ही दिया है ।

तो क्या इतिहास फिर खुद को दोहरायेगा । कभी मोदी के आसरे गुजरात को हिन्दुत्व के मॉडल के तौर पर एक वक्त देश ने देखा । और अब योगी के आसरे यूपी का हिन्दुत्व के नये मॉडल के तौर पर देखने का इंतजार देश कर रहा है । मोदी ने विकास की चादर ओढ ली है तो योगी अभी भी भगवा ओढ़े हुये हैं। और मोदी की तमाम सफलताओ का मॉडल विकास पर जा टिका है और इंतजार अब योगी मॉडल का हो रहा है। इसीलिये मोदी के ढाई बरस के दौर में जिस योगी को फ्रिंज एलीमेंट माना गया । संघ ने उसी फ्रिंज एलीमेंट पर सीएम का ठप्पा लगाकर साफ संकेत दे दिये कि हिन्दू एजेंडा दरकिनार हो वह उसे मंजूर नहीं । यानी संघ ने मोदी-योगी की जोडी से सपने तो यही संजोये है कि , ” आर्थिक समृद्धि और दोहरे अंकों के विकास दर के साथ हिंदू युग का स्वर्णिम काल दिखायी दे । ” और मोदी हिन्दू युग के स्वर्मिम काल के प्रतीक बनना नहीं चाहेंगे। लेकिन योगी इस प्रतीक को अपने तरीके से जिन्दा कर सकते है । क्योंकि चाहे अनचाहे राम मंदिर पर राजनीतिक निर्णय का वक्त आ गया है । और मोदी सरकार की खामोश पहल और फ्रिंज एलीमेंट से सीएम बने योगी क खुली पहल के बीच संघ परिवार महसूस कर रहा है कि मोदी मॉडल सत्ता के लिये चाहिये । लेकिन योगी मॉडल हिन्दु युग के स्वर्णिम काल के लिये चाहिये । क्योंकि याद कीजिये पिछले बरस 2 मार्च तो गोरखपुर के मंदिर में जब संतो की बैठक हुई । और इससे संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी भी शामिल हुये तो कहा गया, “1992 में ‘ढांचा’ तोड़ दिया गया। अब केंद्र में अपनी सरकार है। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला हमारे पक्ष में आ जाए, तो भी प्रदेश में मुलायम या मायावती की सरकार रहते रामजन्मभूमि मंदिर नहीं बन पाएगा। इसके लिए हमें योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाना होगा” यानी ठीक एक बरस संघ ने राम मंदिर के लिये योगी आदित्यनाथ को सीएम बनाने पर सहमति दे दी थी । जबकि संघ बाखूबी जानता समझता है कि योगी आदित्यनाथ संघ के स्वयंसेवक कभी नहीं रहे । तो क्या योगी मॉडल आने वाले वक्त में हिन्दुत्व को लेकर हिन्दू महासभा का वही मॉडल है, जिसपर एक वक्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी सहमति नहीं थी । या फिर सत्ता और मंदिर के बीच अभी भी जब मोदी फंसे हुये है तो योगी को आगे कर संघ परिवार ने तुरुप का पत्ता फेंका है। ये सवाल इसलिये क्योकि राम मंदिर का सवाल हिन्दू महासभा ने पहले उठाया । रक्षपीठ के पूर्व मंहत दिग्विजय नाथ ने 1949 में ही राम जन्मभूमि का सवाल उठाया । आरएसएस ने 1964 में वीएचपी के जरीये हिन्दुत्व के सवाल उठाने शुरु किये । और सच यही है कि जिस दौर में हिन्दू महासभा के सदस्य बकायदा भारतीय रामायण महासभा के बैनर तले राम मंदिर का सवाल उठा रहे थे तब संघ परिवार की सक्रियता उतनी तीखी नहीं थी जितनी हिन्दु महासभा की थी । और दिग्विजय नाथ के निधन के बाद उनके शिष्य और आदित्यनाथ के गुरु अवैद्यनाथ ने आंदोलन को आगे बढ़ाया। विश्व हिन्दू परिषद की 1989 धर्म संसद में अवैद्यनाथ के भाषण ने ही इस आंदोलन का आधार तैयार किया था। जिसके बाद महंत अवैद्यनाथ बीजेपी में शामिल हुये । और राम मंदिर आंदोलन में अवैद्यनाथ की भूमिका का अंदाजा लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट से लगाया जा सकता है। आयोग की रिपोर्ट कहती है , ‘पर्याप्त मात्रा में पुख्ता सबूत दर्ज किए गए हैं… कि उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा, परमहंस रामचंद्र दास, आचार्य धर्मेंद्र देव, बीएल शर्मा, … महंत अवैद्यनाथ आदि ने भड़काऊ भाषण दिए.’ । तो इन्हीं अवैधनाथ के शिष्य आदित्यनाथ की तरफ संत समाज राम मंदिर बनाने के लिए टकटकी लगाए देख रहा है।

यानी राम मंदिर को लेकर इतिहास के पन्नो में एक परीक्षा प्रधानमंत्री मोदी की भी है । क्योंकि इससे पहले अयोध्या में राम मंदिर को लेकर जो भी पहल हिन्दू महासभा से लेकर विहिप या संघ परिवार ने की । हर दौर में केन्द्र में सत्ता कांग्रेस की थी । यानी हिन्दू संगठनों के आंदोलन ने बीजेपी को राजनीतिक लाभ पहुंचाया । हिन्दू वोट बैक बीजेपी के लिये ध्रुवीकरण कर गया । लेकिन अब बीजेपी की सरकार के वक्त हिन्दू संगठनों को निर्णय लेना है । संघ को निर्णय लेना है । और बीजेपी को भी राजनीतिक नफे नुकसान को तौलना है । क्योंकि दोनों तरफ बीजेपी भी खड़ी है । और संघ को मोदी नहीं राम मंदिर के लिये योगी भा रहे हैं। और सवाल यही है कि मोदी मॉडल का वक्त पूरा हुआ। अब योगी मॉडल का इंतजार है ।(लेखक के ब्लॉग से साभार)

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