मोदी हो या केजरीवाल दिल्ली की हार सिर्फ हार नहीं होगी बल्कि इतिहास रचेगी – पुण्य प्रसून

दिल्ली चुनाव के मद्देनज़र न्यूज़ चैनलों पर सर्वे का बाजार गर्म है, लेकिन ज्यादातर सर्वे संदेहास्पद
दिल्ली चुनाव के मद्देनज़र न्यूज़ चैनलों पर सर्वे का बाजार गर्म है, लेकिन ज्यादातर सर्वे संदेहास्पद

दो दशक तक यूरोप पर राज करने वाले नेपोलियन को ठीक दो सौ बरस पहले वाटरलू के मैदान में ही हार मिली थी। नेपोलियन ने वाटरलू को सबसे छोटी लड़ाई के तौर पर देखा था। लेकिन वाटरलू में नैपोलियन की हार ने दुनिया को हार के नाम पर वाटरलू सरीखा एक ऐसा शब्द दे दिया, जिसके बाद हर शख्स हर लड़ाई में कूदने से पहले इस नाम से घबराने कतराने जरुर लगा। दिल्ली चुनाव कुछ इसी अंदाज में है जहां नरेन्द्र मोदी हो या केजरीवाल दोनों में जिसे भी हारमिली उसके लिये दिल्ली वाटरलू साबित हो सकती है। क्योंकि दिल्ली फतह की पहली कहानी दिल्ली में केजरीवाल की जीत से ही शुरु होती है जब उन्होंने शीला दीक्षित को ना सिर्फ हराया बल्कि कांग्रेस को भी सत्ता से बाहर कर दिल्ली के सीएम बन बैठे। वह 2013 का साल था । लेकिन दूसरी तरफ दिल्ली चुनाव के ऐन बाद 2014 के लोकसभा चुनाव नरेन्द्र मोदी ने जिस जनादेश के साथ भारतीय राजनीति में इतिहास रचा उसने गुजरात के सीएम के तौर पर बारह बरस पुरानी लोकप्रियता को भी पीछे छोड़ दिया। और पीएम बनते ही नरेन्द्र मोदी के नाम भर से एक के बाद एक कर महाराष्ट्र, हरियाणा ,झारखंड और जम्मू कश्मीर तक में बीजेपी को जिस तरह जीत मिली उसने नरेन्द्र मोदी को भारतीय राजनीति में अगर अजेय बनाया तो एशिया में भारत को जिस अंदाज में खड़ा कर रहे है, वह विश्व बाजार में मोदी की छवि ना हारने वाले शख्स की तो बनी है। जबकि दिल्ली में केजरीवाल की जीत के बाद दुनिया भर की नजर केजरीवाल की आंदोलन से निकली आधुनिक राजनीति पर भी टिकी। मगर लोकसभा चुनाव में बुरी गत केजरीवाल को मिली तो दुनिया ही नहीं भारत में भी केजरीवाल को लेकर बने मिथ टूटे। ऐसे में केजरीवाल ने भी दिल्ली के बाहर किसी भी चुनाव से ना सिर्फ तौबा कर ली बल्कि जिस महाराष्ट्र और हरियाणा में दिल्ली के बाद केजरीवाल का सबसे बडा कैडर था, वहां भी अपनी पार्टी के चुनाव लड़ने के सेन्ट्रल कमेटी के निर्णयों को खारिज करते हुये सारा दांव दिल्ली में ही लगाना तय किया। इतिहास के पन्नों को पलटें तो 1815 में नेपोलियन के खिलाफ वाटरलू में इंग्लैड,रुस, आस्ट्रिया पर्शिया की सेना एकजुट हो उससे पहले ही नेपोलियन ने हमला कर दिया था और नेपोलियन को भरोसा था कि उसे जीत मिलेगी। लेकिन हुआ उल्टा ।

कुछ इसी तर्ज पर दिल्ली में केजरीवाल ने अगर सारी ताकत झोकी और दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी ने समूची पार्टी ही नहीं बल्कि समूची सरकार को ही जिस तरह दिल्ली की सड़क पर उतार दिया उसने इसके संकेत तो चुनाव का बिगुल फूंकते ही दे दिये कि दिल्ली चुनाव दोनों ही नेताओं के लिये जीवन-मरण का सवाल है। क्योंकि केजरीवाल अगर दिल्ली में हारते हैं तो आम आदमी पार्टी बिखर जायेगी। केजरीवाल का नेतृत्व कटघरे में खड़ा कर दिया जायेगा। और राजनीति के जिस नये प्रयोग की आस दिल्ली के आंदोलन से निकली उसकी उम्र भी दिल्ली में ही ठहर जायेगी। इतना ही नहीं जो सेक्यूलर राग ममता-नीतिश-देवेगौडा या वामपंथी अपनी हार छुपाते हुये केजरीवाल के पीछे आ खड़े हुये हैं, उनके सामने भी विक्लप की सोच खत्म होगी। वही दूसरी तरफ अगर बीजेपी चुनाव हारती है तो यह नरेन्द्र मोदी के चमात्कारिक नेतृत्व के अंत की शुरुआत होगी। बीजेपी के भीतर से भी वह आवाजे सुनायी देने लगेगी जो लोकसभा चुनाव के बाद से जीत दर जीत की रणनीति तले दबती चली गई और माना यही गया कि चुनाव जीतने और जीताने वाला ही सबसे बडा खिलाड़ी होता है। यहा तक की उत्तर भारत के कद्दावर राजनेताओं को भी जिस तरह गुजरात के रणनीतिकार के सामने नतमस्तक होना पड़ा है उन्हें अपना आस्तित्व नजर आने लग सकता है। यानी जातिवाद, संप्रदायवाद की राजनीति दुबारा परवान चढ़ सकती है या फिर विकासवाद का नारा खोखला साबित हो सकता है। या फिर देश के हालात विकास की चकाचौंध को खारिज कर देसी अंदाज में न्यूनतम के संघर्ष से सियासत साधने की दिशा में बढ़ सकते हैं। असल में दिल्ली चुनाव देश के किसी भी राज्य के चुनाव पर भारी पड़ रहा है क्योंकि दिल्ली चुनाव के परिणामों के आसरे देश की राजनीति की दिशा भी तय होनी है। दिल्ली के बाद बिहार और यूपी का रास्ता किस दिशा में जायेगा उसकी पगडंडी तो दिखायी देने लग जायेगी। केजरीवाल की जीत क्षत्रपों को आक्सीजन दे सकती
है।

इसके खुले संकेत इसी से मिलने लगे कि लोकसभा चुनाव में जनता परिवार के हारे क्षत्रपों ने एक तरफ केजरीवाल को समर्थन देने में कोई देरी नहीं की। और दूसरी तरफ दिल्ली प्रचार में ही प्रधानमंत्री मोदी ने पहली बार मुलायम, मायावती,नवीन पटनायक ही नहीं बल्कि ममता बनर्जी और नीतिश कुमार का नाम यह कहकर लिया कि इन क्षत्रपो की अपनी पहचान है और इन्होंने बरसों बरस देश की सेवा की है और जनता इन्हें चुनती रही है। तो सवाल है कि क्या दिल्ली चुनाव ने प्रधानमंत्री मोदी को बदल दिया है या फिर मोदी ने राजनीति साधने के लिये नयी सियासी बिसात बिछायी है। क्योंकि नीतिश का नाम जुबां पर लाने की जगह प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा चुनाव के दौर में नीतिश कुमार पर खूब तंज कसे थे। ममता बनर्जी को सड़क पर आंदोलनकारी से लेकर सारदा घोटाले की नायिका बताने में देरी नहीं की थी। तो दिल्ली चुनाव परिणाम वाटरलू साबित ना हो इसके लिये बिसात बिछायी जा रही है। और बिसात पर तीन सवाल प्यादे बने हैं। पहला क्या मोदी केजरीवाल को तमाम क्षत्रपों से इतर खडा कर रहे हैं। दूसरा,क्या मोदी भविष्य में जनता परिवार के दायरे को बढने से रोक रहे हैं। तीसरा क्या मोदी दिल्ली चुनाव को देश के बाकी राज्यों से हटकर देखने को कह रहे हैं। जिससे पारंपरिक राजनीति के सामने मोदी के विकासवाद की सियासत ही जादू की तरह कामयाब होती चले। यानी बिहार-यूपी में केजरीवाल की तर्ज पर कोई तीसरी ताकत आने वाले दिनों में खडी ना हो जाये जो विकासवाद से आगे की हो। लोगों के पेट और न्यूनतम जरुरतों से सीधी जुड़ी हो। क्योंकि सियासत की जिस लकीर को केजरीवाल दिल्ली चुनाव में खींच चुके हैं, उसने भी कई सवालों को जन्म दे दिया है। मसलन क्या विकास की चकाचौंघ सिवाय धोखे के कुछ भी नहीं। न्यूनतम की लडाई लडते देश में सिर्फ उपभोक्ताओ की सुविधा की नीतियां बेमानी हैं। या फिर जाति-धर्म की राजनीति को अपने माफिक परिभाषित कर विकासवाद की जिस सोच को लाया जा रहा है, वह विदेशी पूंजी पर ही टिकी है। मौजूदा राजनीति सत्ता पाने के बाद देश को बाजार के तौर पर ही देखना चाहती है। यानी चुनाव सिर्फ दिल्ली को देखने समझने भर ही नहीं बल्कि सत्ता मिल जाये तो किस दिशा में दिल्ली को ले जाने के सपने कौन किस रुप से देख रहा है और दिल्ली वाले किसे मान्यता देंगे, उसका भी एसिड टेस्ट दिल्ली चुनाव हो चला है। दिल्ली चुनाव इसलिये भी वाटरलू सरीखा है क्योंकि दिल्ली को मोदी के गवर्नेस तले चकाचौंघ दिखायी देती है कि नहीं। या फिर विकास के लिये जो बडे बडे काम विदेशी पूंजी के जरीये आने वाले वक्त में होने है वह समझ में आता है कि नहीं। या फिर केजरीवाल का सिस्टम से ही संघर्ष करते हुये भ्रष्ट्राचार पर नकेल कसने के उपाय या महिला सुरक्षा के लिये सीसीटीवी के जरीये रास्ता निकलना कितना मायने ररखता है एसिड टेस्ट इसका भी है। ध्यान दें तो दिल्ली चुनाव में खुले तौर पर प्रधानमंत्री मोदी के आठ महीने बारह दिन पुरानी सरकार और केजरीवाल के 49 दिन दिल्ली सरकार में बतौर सीएम को लेकर भी नायाब मुकाबला है। हर कोई जानता है कि मोदी सरकार बहुमत के साथ है और 2019 तक उन्हें कोई चुनावी टेस्ट नहीं देना है। लेकिन केजरीवाल के पास सत्ता के नाम कुल जमा पूंजी वही 49 दिन है जो राजनीति से लेकर सडक तक पर निशाने पर आये । लेकिन बीते आठ महीनो के मोदी सरकार ने 49 दिनो की सरकार को अपने प्रचार के तरीके से आक्सीजन दे डाली । दिल्ली वालो को समझ ही नहीं आया कि 49 दिन रोकने के लिये आठ महीने वाली भारी बहुमत की सरकार सडक पर क्यों तर आयी है । इसीलिये झटके में संकेत यही गया कि दिल्ली में केन्द्र की सरकार पर नकेल कसने के लिये किसी दूसरी पार्टी की सरकार होनी चाहिये । इसीलिये चुनावी प्रचार में यह सवाल भी उछला कि जिस पार्टी की सरकार केन्द्र में हो उसी पार्टी की सरकार राज्य में हो तो काम बेहतर होता है । सही मायने में दिल्ली चुनाव दो अलग अलग समाज और उस दो भारत के बीच का भी चुनाव हो चला है, जहां एक जरुरत दूसरे के लिये सपना है । और दूसरे की जरुरत पहले के लिये भीख देने वाला सच है। यानी दो भारत के बीच की राजनीति को पाटने वाला भी दिल्ली चुनाव साबित होगा। इसिलये यह माना जा रहा है कि दिल्ली चुनाव का फैसला भविष्य की राजनीति को देखने और करने का नजरिया बदल देगा। यानी भारतीय राजनीति दिल्ली के जरीये एक ऐसे राजनीतिक प्रयोग की आस लगाये हुये है, जहां मोदी हो केजरीवाल उनकी हार सिर्फ हार नहीं होगी बल्कि नेपोलियन के वाटरलू की तर्ज पर इतिहास रचेगी।  (लेखक के ब्लॉग से साभार)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.