क्या आवाम की ताकत सत्ता और सेना को डिगा सकती है? खासकर भारत पाकिस्तान के संबंधों की जटिलता के बीच। जहां सत्ता बात करती है तो पाकिस्तानी सेना हरकत अगले ही दिन सीमा पर दिखायी देने लगती है। लेकिन सिल्वर स्क्रीन पर अगर यह सपना परोसा जाता है कि आवाम की ताकत सत्ता और सेना को डिगा सकती है तो फिर कई सवाल बजरंगी भाईजान के जरीये सलमान खान ने ईद के मौके पर पैदा कर दिये हैं। पहला सवाल क्या सेना और सत्ता ने ही भारत पाकिस्तान के संबंधों को उलझा कर रखा है। दूसरा सवाल अगर हिन्दुओं के कदम बढ़े तो वे समझ जायेंगे कि मस्जिद में कभी ताले नहीं लगते क्योंकि कोई भी कभी भी वहां आ सकता है। तीसरा सवाल मानवीयता और सरोकार ही अगर मुद्दा बन जायें तो धर्म की कट्टरता भी खत्म हो जाती है।
दरअसल भारत पाकिसातन के संबंधों को लेकर सियासी नजरिये से फिल्में तो कई बनीं या कहें सियासी नजरिये को ही केन्द्र में रखकर फिल्म निर्माण खूब हुये हैं जो दोनो देशो के बीच युद्द और घृणा के खुले संकेत देकर फिल्म देखने वालो के खून गर्म कर देते हैं। लेकिन आंखों में आंसू भरकर लाइन ऑफ कन्ट्रोल को खत्म होते हुये देखने का कोई सुकून भी हो सकता है और पाकिस्तान की जो सेना चुनी हुई सत्ता से भी ताकतवर नजर आती हो वह आवाम के सामने यह कहकर झुक जाये कि हम तो आवाम के सामने तादाद छटाक भर है। इसलिये रास्ता छोड़ते हैं। यह सोच पाकिस्तान को लेकर कही फिट बैठती नहीं दिखती लेकिन यह सिल्वर स्क्रीन का नायाब प्रयोग ईद के मौके पर ही आया जब कबीर खान के निर्देशन में सलमान खान हनुमान भक्त होकर जय श्रीराम कहते हुये पाकिस्तान में चले जाते हैं और वहां की आवाम भी हनुमान भक्त के साथ खडे होकर जय श्रीराम बोलने में नहीं हिचकती। और हनुमान भक्त को भी दरगाह या मस्जिद जाने या टोपी पहनने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती। तो क्या पाकिस्तान के साथ संबंधों को लेकर सिनेमा बदल रहा है या फिर सलमान खान ने अपने कद का लाभ उठाते हुये चाहे-अनचाहे में सिल्वर स्क्रीन पर एक ऐसा प्रयोग कर दिया जो दोनों देशों के सत्ताधारियों के जहन में कभी किसी बातचीत में नहीं उठा कि बर्लिन की दीवार की तर्ज पर भारत पाकिस्तान के बीच खड़ी दीवार को आवाम ठीक उसी तरह गिरा सकती है जैसे 9 नवंबर 1989 को बर्लिन में गिराया गया था।
संयोग ऐसा है कि जिस वक्त बर्लिन की दीवार गिरी उसी वक्त कश्मीर में आतंक की पहली बडी घुसपैठ भी शुरु हुई। महीने भर बाद 8 दिसबंर 1989 को रुबिया सईद के अपहरण के बाद सीमा पार से आतंक की दस्तक कुछ ऐसी हुई जिसने सबसे ज्यादा उसी आवाम को प्रभावित किया जिस आवाम के जरीये सिल्वर स्क्रीन बदलाव की रौ जगाना चाहता है। और वह कैसे अब एक नये युवा आंतक में बदल रही है यह घाटी में लहराते आईएसआईएस और फिलिस्तीन झंडों के लहराने से भी समझा जा सकता है। क्योंकि विदाई रमजान के दिन जिस तरह वादी में जामा मास्जिद की छत पर चढ कर फिलिस्तीन, पाकिस्तानी और आईएसआईएस के झंडे लहराये गये और झंडों के लहराने के बाद हर जुम्मे की नवाज के बाद जिस तरह सुरक्षाकरमियो पर पत्थर फेंके गये। झड़प हुई। पुलिस ने लाठिया भांजी। आसू गैस के गोले छोड़े । उसने सिर्फ कश्मीर घाटी के बदलते हालात को लेकर ही नये संकेत देने शुरु नहीं किये है बल्कि कश्मीर को लेकर नया सवाल आंतक से आगे आतंक को विचारधारा के तौर पर अपनाने के नये युवा जुनुन को उभारा।
विचारधारा इसलिये क्योकि आईएसआईएस की पहचान पाकिस्तान से इतर इस्लाम को नये तरीके से दुनिया के सामने संघर्ष करते हुये दिखाया जा रहा है और घाटी में आज कोई पहला मौका नहीं था कि आईएसआईएस की झंडा लहराया गया। इससे पहले 27 जून को भी लहराया गया था और उससे पहले आधे दर्जनबार आईएसआईएस आंतक के नये चेहरे के तौर पर घाटी के युवाओ को आकर्षित कर रहा है यह नजर आया है। तो क्या आवाम को किस दिशा में ले जाना है यह सत्ता को भी नहीं पता है । और दिमाग या पेट से जुड़े आतंक को लेकर किसी सत्ता के पास कोई ब्लू प्रिट नहीं है। क्योंकि चंद दिनो पहले ही सेना की वर्दी में वादी के युवाकश्मीरियों के वीडियो ने कश्मीर से लेकर दिल्ली तक के होश फाख्ता कर दिये थे।
और दस दिन पहले सोशल मीडिया पर हथियारों से लैस युवा कश्मीरियो की इस तस्वीर ने घाटी में आंतक को लेकर नयी युवा सोच को लेकर कई सवाल खड़े किये थे। यानी घाटी की हवा में पहली बार पढ़ा लिखा युवा आतंक को महज सीमापार आतंकवादियों से नहीं जोड़ रहा है। बल्कि आईएसआईएस के बाद फिलिस्तीन का झंडा लहराकर अपने गुस्से को विस्तार दे रहा है। यानी आतंक की जो तस्वीर 1989 में रुबिया सईद के अपहरण के बाद कश्मीर के लाल चौक से लेकर लाइन आफ कन्ट्रोल तक हिसा के तौर पर लहराते हथियार और नारों के जरीये सुनायी दे रहे थे ।और 1989 में जो कश्मीर आंतक की एक घटना के बाद दिल्ली से कट जाता था वही कश्मीर अब तकनीक के आसरे दिल्ली ही नहीं दुनिया से जुड़ा हुआ है। और घाटी ने बकायदा वोट डाल कर अपनी सरकार को चुना है। यानी 1989 वाले चुनाव दिल्ली के इशारे के आरोप भी अब नहीं है।
तो नया सवाल प्रधानमंत्री मोदी की नवाज शरीफ के साथ उफा की बैठक के मुद्दे और सिल्वर स्क्रीन पर बजरंगी भाईजान के जरीये रास्ता निकालने के बीच फंसे संबंधों का है। क्योंकि मौजूदा हालात घाटी में राजनीतिक आतंक की नई जमीन बना रहा है। जिसपर चुनी हुई सरकार का भी कोई वश नहीं है क्योंकि श्रीनगर हो या दिल्ली दोनो का नजरिया सीमा पार आंतक से आगे बढ नहीं पा रहा जबकि श्रीनगर के जामा मस्जिद पर लहराते झंडे संकेत दे रहे है कि सीरिया में सक्रिय आईएसआईएस ही नहीं बल्कि फिलिस्तीन के झंडे के जरीये इजरायल तक को मैसेज देने की कश्मीरी युवा सोच रहा है। यानी पहली बार यह सवाल छोटे पड़ रहे है कि कभी वाजपेयी को लाहौर बस ले जाने की एवज में करगिल युद्द मिला। तो -मोदी को उफा बैठक के बाद ड्रोन और सीमा पर फायरिंग मिली। यानी सियासत अगर हर बैठक के बाद उलझ जाती है तो पाकिस्तानी सेना की हरकत उभरती है । और आवाम अगर नफरत में जीती है तो आंतक के साये में धर्म को निशाने पर लिया जाता है । यानी दूरिया जिन वजहो से बनी है उन वजहों से आंख मूंद लिया जाये तो सिल्वर स्क्रीन का सपना सच हो सकता है। क्योंकि सलमान खान फिल्म में हिन्दुओं के उन तमाम जटिलताओं को जीते हुये इस्लाम की हदो में समाते है जो मौजूदा वक्त में संभव इसलिये नहीं लगता क्योकि धर्म की अपनी एक सत्ता है जो चुनी हुई सत्ता को बनाने और डिगाने की ताकत रखती है। और बजरंगी भाईजान भारत पाकिस्तान के संबंधों को लेकर धर्मसत्ता और आतंक दोनों सवालों पर मौन रहती है । यानी सवाल सिर्फ चुनी हुई सत्ता के सियासी तिकडमो और आवाम का हो तब तो लाइन आफ कन्ट्रोल का रास्ता निकाला जा सकता है । लेकिन जब सवाल सत्ता के लिये बातचीत और विचारधारा के लिये आंतक का हो चुका हो तब सरकार और सिल्वर स्क्रीन के बीच की दूरी कैसे मिट जाती है यह 10 जुलाई की उफा में बैठक के बाद के हालात और 17 जुलाई को बजरंगी भाईजान देखने के बाद कोई भी समझ सकता है कि आखिर सलमान खान ने ट्विट कर क्यों कहा कि प्रधानमंत्री मोदी और नवाज शरीफ को यह फिल्म जरुर देखनी चाहिये।
(लेखक के ब्लॉग से साभार)