ये टीवी पत्रकारिता का दुर्भाग्य ही है कि जिन्हें बोलना तो छोड़िये माइक तक ढंग से पकड़ना नहीं आता वे भी मारीमारी किये जा रहे हैं,दौड़े पड़े है…हद है! (पवन लालचंद)
वेद उनियाल,वरिष्ठ पत्रकार-
आदरणीय पवनजी आपने बहुत जरूरी बहस छेडी है कि जिन्हें बोलना नहीं आता माइक पकडना नहीं आता वे टीवी रिपोर्टर बने हैं। आपने अच्छा कहा। इसपर वरिष्ठ पत्रकार राजीव थपलियालजी ने जो बातें उठाई है उन पर गौर किया जाना चाहिए। वास्तव में ऐसे पत्रकारों को कौन टीवी या अख़बार में ला रहा है। या तो मालिक या संपादक। तीसरे को कोई दोष नहीं। अजीब सी हालत है उत्तराखंड में। बाहर की बात नहीं करता। टीवी पर केवल नेताओं के बयान है। लेकिन नैनवालजी, व्योमेशजी हरीश चंदोलाजी , शिव जोशीजी दाता राम चमोलीजी और भी कई बडे पत्रकार , इन्हें टीवी के संपादक अपने कैमरों के सामने नहीं लाना चाहते । इनसे दूरी बरती जाती है।
अफसोस है कि दून टीवी पत्रकारिता में कई समोसे तलने वाले, बेल्डिंग करने वाले, मछली बेचने वाले , पानीपूरी का ठेला लगाने वाले, जमीनों ा सौदा करने वाले खाली प्लाटों का विडियो बनाने वाले पत्रकार बन गए हैं। कोई व्यक्ति मेहनत करके किसी मुकाम को पाए तो खुशी होनी चाहिए। लेकिन इन पत्रकारों के साथ आप यह धाारणा न जोडिए। ये पत्रकारिता के जंबूरे हैं।
पवनजी आपने टीवी मीडिया की बात कह तो दी मगर बताइए जिस टीवी चैनल को राज्य में पांच सौ लोग भी नहीं देखते उसे लाखो का विज्ञापन क्यों दिया जा रहा और कौन दे रहा है। जो टीवी चैनल गांव की बातों को नहीं दिखा पा रहा उसका मालिक उत्तराखंड से अटेजी भर कर क्या ले जा रहा है। सोचिए इन बातों पर।
उत्तराखंड टीवी के लिए केवल हरीश रावत, अजय भट्ट, सूर्यकांत धस्माना सुरेंद्र अग्रवाल नरेश बंसल रणजीत रावत जैसे तमाम नेता ही उत्तराखंड का प्रतीक बने हुए हैं। कितनी अजीब बात है कि टीवी मीडिया उत्तराखंड को व्योमेशजी, हरीश चंदोलाजी की निगाह से नहीं बल्कि सुरेंद्र अग्रवाल की निगाह से देखना चाहता है। टीवी मीडिया की इस हालत के लिए किसे जिम्मेदार ठहराए। और सामान्य शक्ल सूरत की लड़की तो पहले ही निराश हो जाती है कि शायद उसका चयन नहीं होगा। चाहे वह कितनी भी बेहतर पत्रकार की उम्मीद जगाती हो। इस बेहद संवेदनशील राज्य में आखिर क्यों चाहिए टीवी पत्रकारिता के लिए बेहद सुंदर चेहरे।
क्या यह कोई मालिक या संपादक का अपना डर है। या पत्रकारिता के धंधे के रूप में बदलने की एक कवायद। दोषी दोनों है टीवी मालिक भी और टीवी संपादक भी। शायद दोनों की अपनी दुकानें चल रही हैं। इसलिए उत्तराखंड जैसे बौद्धिक राज्य में टीवी मालिक और संपादक दोनों डरे हुए है। आशा है आप जैसा पत्रकार इस पर समीक्षा करेगा। अख़बार तो अपनी गत में चल ही रहे हैं। देहरादून की टीवी पत्रकारिता ने और गंद मचाई हुई है। कहीं टीवी में उत्तराखंड नहीं है। केवल नेताओं को प्रायोजित किस्म के बयान नजर आते हैं।