जितेन्द्र ज्योति
मोदी ने मीडियातंत्र को मोडियातंत्र बना दिया। मीडियाकर्मी ,मोदियाकर्मी बनकर शहीद होने की कतार में हैं। ये रेस है पत्र से कार लेने का । रेस है पूंजीवाद का ,पूंजीवादिओं का और पूंजी बनाने का। मोदी के नाम पर और सेल्फ़ी -मोदी का तानाबाना बुनकर पूंजीपति बनने का। राष्ट्रीय मीडिया से लेकर क्षेत्रीय मीडिया संस्थान के मालिक व पत्रकार इस रेस की पाइप लाइन में लगे हुए हैं. मीडिया संस्थान के मालिक बिककर भी छिपकर हैं क्यूंकि बन्दुक संपादक और संपादक द्वारा प्रायोजित पैकेज या कॉलम के मार्फ़त चलता है। मीडिया का पूर्ण पूंजीवादी करण या कॉरपोरेट रंग आज से कई वर्ष पूर्व ही दिख गया था और ये जगजाहिर है कि भारतीय शासन अप्रत्यक्ष तौर से अमेरिका के हाथो चलता है। अमेरिका के इशारे पर आज से पांच साल पूर्व ही मोदी के पक्ष में सबकुछ तैयार कर लिया गया था ,यानि की कलम की स्याही में अर्थस्याही भरकर प्रचार प्रसार होने लगा था. सब कुछ वही होना था जो ओबामा ने किया और हुआ भी।
गोयबल्स की सिद्धांत पर चलते हुए संघ ने अपने अजेंडे को पूंजीतंत्र से सजाया संवारा और जनता के सामने झूठा राग अलापना शुरू कर दिया की अच्छे दिन आने वाले है। इस तंत्र को सफल बनाने में कांग्रेस ने भी पूरा समर्थन दिया संघ को. राम मंदिर में जैसे कांग्रेस ने संघ का साथ दिया था . भाजपा ने कॉरपोरेट से हाथ मिलाकर गोयबल्स के उस तंत्र को मीडियातंत्र के मार्फ़त जनता को अँधेरे में रखकर सत्ता प्राप्त किया।
पूंजीवादिओं ने कहा तुम हमे सत्ता की चाभी दिलवाओ हम तुम्हे पैसे के बक्से की चाभी देंगे। कलम अपनी आबरू बचाने के लिए भीष्म पितामहों से इज्जत बचाने की गुहार लगाई लगाई लेकिन बचा न सके भीष्म पितामह सब ,इन भीष्म की श्रेणी में आडवाणी जी सबसे अगुआ थे। वही पितामह जो कभी आपातकाल का विरोध करते हुए जेल यात्रा की थी। मसलन ,कहना साफ होगा कि काला धन की काली स्याही से अब छपवाया जाता है ,टीवी स्क्रीन पर दीखता है। कलम को वेश्या बाजार में बेचने वालों की लिस्ट बड़ी लम्बी है नाम लिखेंगे तो मोदी जी के अगले पांच साल का कार्यकाल कम पड़ेगा। पत्रकार शब्द ही इंक़लाब हुआ करता था अब पत्रकार का पहला नाम दलाल और वेश्या है ये सबको मान लेना चाहिए नहीं तो चैनल के डिबेट में सचाई कहाँ चाहिए। पत्रकारों की पिटाई अब आम बात है लेकिन इन पिटाई का स्वागत करना चाहिए आम जनता को और मुझे भी दुःख नहीं होता। इसके जवाब में कहना चाहूंगा कि पत्रकारों की पिटाई अगर किसान के आत्महत्या या गरीब ,मजदूर के अधिकारों के लिए होती तो पत्रकार पर नाज होता अब लाज होता है। धिक्कार है,,, आज के नपुंसक पत्रकारिता और हिटलरशाही राजा का।
*जितेन्द्र ज्योति (पत्रकार सह सामाजिक कार्यकर्ता )
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं. मीडिया खबर का उससे पूर्णतया सहमत होना आवश्यक नहीं)