धीरज कुलश्रेष्ठ,पत्रकार
पत्रकार किसी फैक्ट्री में नहीं बनते. पत्रकारिता पढाने और डिग्रियां बांटने वाले संस्थान पत्रकार बनाने में असफल सिद्ध हुए हैं.ये तो पत्रकार का आंतरिक गुण है जो अभ्यास से विकसित होता है.मीडिया हाउस तो उस गुण को पहचान कर मौका देते हैं और अपने लिए इस्तेमाल करते हैं.
पर अब पत्रकारिता के इथिक्स बदले हैं तो मार्केटिंग के माहिर पत्रकारों की चांदी हो रही है.राजनेता भी यह सब खूब समझ रहे हैं और अपनी सुविधा से पत्रकारों का उपयोग कर रहे हैं. इसमें असली चांदी तो मीडिया मालिकों की है.
मार्केटिंग में माहिर रिपोर्टर भी जब किसी पार्टी के स्कैम के सबूत लेकर पार्टी से विज्ञापन लेने जाता है तो पार्टी उसके सामने ही मार्केटिंग मैनेजर को फोन लगा देती है.विज्ञापन बुक कराती है और साथ ही कहती है कि ये खबर छपनी नहीं चाहिए और ये रिपोर्टर दुबारा मेरे ऑफिस में आना नहीं चाहिए.अब बताइए चांदी किसकी हुई.
पुराने किस्म का परंपरागत रिपोर्टर अपनी मेहनत से की गई स्टोरी अपने संपादक को देता है.साथ में सबूतों की फाइल देता है.संपादक उसे मालिकों या सीधे मार्केटिंग सेक्शन में भेज देता है. दो दिन बाद अखबार/चैनल में पार्टी का विज्ञापन होता है. रिपोर्टर की बीट बदल जाती है. अब बताइए चांदी किसकी हुई.
अखबारों में 3-3…5-5 पेज जैकेट ऐसे ही आ रहे हैं क्या?
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