मीडिया में शोध ही सुधार का रास्ता – संजय कुमार

संजय कुमार :

MEDIA KHABAR 4यूएनडीपी की मानव विकास रिपोर्ट-2013 में खुलासा किया गया है कि भारत भले ही उभरती हुई अर्थव्यवस्था हो, लेकिन शोध के क्षेत्र में पाकिस्तान से भी पीछे है। जबकि भारत में शोध-कार्यों पर जीडीपी का 0.8 फीसदी खर्च किया जाता है, जो कि पाकिस्तान के खर्च से कहीं ज्यादा है। इससे एक बार फिर यह बात साफ हो जाती है कि विकास दर तो बढ़ रही है, लेकिन शोध कार्यों में हमारी स्थिति बेहतर नहीं है। मीडिया के क्षेत्र में तो शोध-कार्यों की स्थिति बदत्तर है।

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, लेकिन मीडिया के चरित्र में आ रहे बदलाव के साथ मीडिया में कई तरह की समस्याएं भी उभर कर सामने आई है। शोध कार्य ही एक मात्र जरिया है जिससे इन समस्याओं को समझने और उसे दूर करने के बारे में ठोस ढंग से बातचीत की जा सकती है। इस वजह से मीडिया के क्षेत्र में शोध का महत्व और भी बढ़ जाता है। समाज में शोध के महत्व को समझते हुए ही राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भी देश के विकास के लिए शोध-कार्यों को बढ़ावा देने की बात कही है।

मीडिया के क्षेत्र में छात्रों के शोध केवल डिग्री हासिल करने के उद्देश्य तक सिमट कर रह जाते है। उन शोधों से कुछ नया निकल कर नहीं आता है, कई बार एक ही प्रकार के शोध से विश्वविद्यलयों के पुस्तकालय भरे हुए हैं। एक तरह के शोधों में फर्क केवल शोध-शीर्षक भर का होता है। इससे जिस युवा अवस्था में विद्यार्थियों के पास सबसे उन्नत किस्म की उर्जा होती है, इस तरह के शोध करवाकर उनके समय और सार्वजनिक पैसों की बर्बादी की जाती है। इन शोध-कार्यों की न तो समाज में कोई उपयोगिता है। अभी तक मीडिया के क्षेत्र में अंग्रेजी में भले ही कुछ शोध मिल भी जाए, लेकिन हिंदी समेत भारतीय भाषाओं में बेहतर शोध मिलना मुश्किल है।

शोध संस्कृति को विकसित करने के उद्देश्य से मीडिया स्टडीज ग्रुप ने हाल के वर्षों में अपनी सक्रियता दिखाई है। बिना किसी संस्थान के सहायता के भी समाज के लिए उपयोगी शोध कैसे किए जा सकते हैं यह इस ग्रुप ने करके दिखाया है। एक वर्ष से ज्यादा समय हो गया जब ग्रुप ने हिन्दी में जन मीडिया और अंग्रेजी में मास मीडिया रिसर्च जर्नल भी प्रकाशित करने शुरू कर दिए है। इसका नारा है हमारा समाज हमारा शोध। इस समूह ने 2006 में मीडियाकर्मियों की सामाजिक पृष्ठभूमि का अध्ययन कर मीडिया में एक नई बहस को जन्म दिया, यह बहस आज भी चल रही है। इसके बाद मीडिया में देश भर में जिले स्तर पर मीडिया में सक्रिय महिलाओं को लेकर किए गए सर्वे ने तो मीडिया में महिलाओं की भागीदारी की वास्तविकता को सामने लाकर रख दिया। मीडिया में राज्यों और देश की राजधानी को छोड़ दें, तो जिले स्तर पर आधी आबादी का लगभग दो प्रतिशत के आसपास प्रतिनिधित्व है।

वहीं, एक सर्वे के मुताबिक प्रशिक्षित पत्रकारों में से एक चौथाई से ज्यादा पत्रकार पत्रकारिता को छोड़ चुके है, जो कि एक नये तरह के सवाल को सामने लाता है। जब प्रतिष्ठित संस्थानों के वेतनभोगी पत्रकारों की यह हालत है, तो अन्य पत्रकारों की स्थिति का भी अंदाज लगाया जा सकता है। पत्रकारों को केवल पत्रकारिता में केवल पैसे की ही जरूरत नहीं रहती है वह समाज में परिवर्तन में भी अपनी भूमिका इसके जरिये सुनिश्चत करने की कोशिश करता है। इस सर्वे से पत्रकारों और पत्रकारिता के संबंधों की स्थिति पर विचार-विमर्श शुरू हुआ। इसी तरह टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों के अध्ययन में यह बात सामने आई कि कैसे चंद लोगों का ही बहसों पर एकाधिकार बना हुआ है। आपातकाल के दिनों में जिस तरह से एक छोटे से समूह का दूरदर्शन के स्टुडियों में कब्जा रहा है, उसी तरह से निजी चैनलों में भी छोटे से समूह का ही कब्जा है।

इसी तरह से डीडी उर्दू का अध्ययन, आकाशवाणीः बहुजन हिताय, सुखाय का अध्ययन, टीआरपी और निर्मल बाबा पर अध्ययन जैसे कई शोध कार्य मीडिया स्टडीज ग्रुप ने किए है। यह समूह शोध और अध्ययन के जरिए समाज को नई दिशा देने के लिए प्रयास करता रहता है।

आज जब प्रोफेनशल मीडिया अपने उद्देश्य से भटक गया और पत्रकारिता के मानकों का उल्लंघन कर रहा है। पेड न्यूज और क्रास मीडिया आनरशिप जैसी समस्या भी सामने आ रही है। इन समस्याओं से निपटने के लिए और मीडिया में सुधार के लिए शोध-कार्यों को बढ़ावा देना जरूरी है। शोध और अध्ययन के जरिए हमें मीडिया को समझने में आसानी होगी। (लेखक पत्रकार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.