हाल ही में एनडीटीवी इंडिया के प्रख्यात पत्रकार रवीश कुमार ने भारतीय पुलिस सेवा के नाम एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने आई पी एस अधिकारी मुकुल द्विवेदी की मौत के बारे में लिखते हुए भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों पर तंज कसा था. उसी पत्र के प्रतिक्रियास्वरूप भारतीय पुलिस सेवा के एक अधिकारी ने रवीश कुमार के नाम एक खत लिखा है जो इस प्रकार है –
रवीश जी के ख़त का उत्तर..
प्रिय रवीश जी,
आपका ख़त पढ़ा । उसमें सहमत होने की भी जगह है और संशोधनों की भी ।यह आपके पत्र का जबावी हमला कतई नहीं है । उसके समानांतर हमारे मनो-जगत का एक प्रस्तुतीकरण है । मैं यह जवाबी खत किसी प्रतिस्पर्धा के भाव से नहीं लिख रहा हूँ । चूँकि आपने भारतीय पुलिस सेवा और उसमें भी खासकर (उत्तर प्रदेश) को संबोधित किया है, इसलिए एक विनम्रतापूर्ण उत्तर तो बनता है । यूँ भी खतों का सौंदर्य उनके प्रेषण में नहीं उत्तर की प्रतीक्षा में निहित रहता है। जिस तरह मुकुल का ,मुस्कराता’ चेहरा आपको व्यथित किये हुए है (और जायज़ भी है कि करे),वह हमें भी सोने नहीं दे रहा..जो आप ‘सोच’ रहे हैं, हम भी वही सोच रहे हैं। आप खुल कर कह दे रहे हैं । हम ‘खुलकर’ कह नहीं सकते । हमारी ‘आचरण नियमावली’ बदलवा दीजिये, फिर हमारे भी तर्क सुन लीजिये। आपको हर सवाल का हम उत्तर नहीं दे सकते । माफ़ कीजियेगा । हर सवाल का जवाब है,पर हमारा बोलना ‘जनहित’ में अनुमन्य नहीं है। कभी इस वर्दी का दर्द सिरहाने रखकर सोइये, सुबह उठेंगे तो पलकें भरी होंगीं । क्या खूब सेवा है जिसकी शुरुआत ‘अधिकारों के निर्बंधन अधिनियम’ से शुरू होती है !क्या खूब सेवा है जिसे न हड़ताल का हक़ है न सार्वजनिक विरोध का . . .
हमारा मौन भी एक उत्तर है ।अज्ञेय ने भी तो कहा था . .
“मौन भी अभिव्यंजना है
जितना तुम्हारा सच है,उतना ही कहो ”
हमारा सच जटिल है । वह नकारात्मक भी है । इस बात से इनकार नहीं। आप ने सही कहा कि अपने जमीर का इशारा भी समझों। क्या करें ?खोटे सिक्के अकेले इसी महकमे की टकसाल में नहीं ढलते । कुछ आपके पेशे में भी होंगे । आपने भी एक ईमानदार और निर्भीक पत्रकार के तौर पर उसे कई बार खुलकर स्वीकारा भी है। चंद खोटे सिक्कों के लिए जिस तरह आपकी पूरी टकसाल जिम्मेदार नहीं, उसी तर्क से हमारी टकसाल जिम्मेदार कैसे हुई?
हम अपने मातहतों की मौत पर कभी चुप नहीं रहे । हाँ सब एक साथ एक ही तरीके से नहीं बोले । कभी फोरम पर कभी बाहर , आवाजें आती रही हैं । बदायूं में काट डाले गए सिपाहियों पर भी बोला गया, और शक्तिमान की मौत पर भी । पर क्या करें, जिस तरह हमें अपनी वेदना व्यक्त करने के लिए कहा गया है, उस तरह कोई सुनता नहीं । अन्य तरीका ‘जनहित’ में अलाउड नहीं । मुक्तिबोध ने कहीं लिखा है कि
“पिस गया वह भीतरी और बाहरी दो कठिन पाठों के बीच
ऐसी ट्रेजेडी है नीच”
मुकुल और संतोष की इस ‘ट्रेजेडी’ को समझिये सर । यही इसी घटना में अगर मुकुल और संतोष ने 24 आदमी ‘कुशलतापूर्वक’ढेर कर दिए होते,तो आज उन पर 156 (3) में एफ आई आर होती । मानवाधिकार आयोग की एक टीम ‘ओन स्पॉट’ इन्क्वायरी के लिए मौके पर रवाना हो चुकी होती। मजिस्ट्रेट की जाँच के आदेश होते। बहस का केंद्र हमारी ‘क्रूरता’ होती । तब निबंध और लेख कुछ और होते ।
आपने इशारा किया है कि’ झूठे फंसाए गये नौजवानों के किस्से’ बताते हैं कि भारतीय पुलिस सेवा के खंडहर ढहने लगे हैं। यदि कभी कोई डॉक्टर आपको आपकी बीमारी का इलाज करने के दौरान गलत सुई (इंजेक्शन) लगा दे(जानबूझकर या अज्ञानतावश) ,तो क्या आप समूचे चिकित्सा जगत को जिम्मेदार मान लेगें? गुजरात का एक खास अधिकारी मेरे निजी मूल्य-जगत से कैसे जुड़ जाता है,यह समझना मुश्किल है ।
हमने कब कहा कि हम बदलना नहीं चाहते । एक ख़त इस देश की जनता के भी नाम लिखें कि वो तय करें,उन्हें कैसी पुलिस चाहिए ।हम चिल्ला चिल्लाकर कह रहे हैं कि बदल दो हमें। बदल दो 1861 के एक्ट की वह प्राथमिकता जो कहती है की ‘गुप्त सूचनाओं’ का संग्रह हमारी पहली ड्यूटी है और जन-सेवा सबसे आखिरी। क्यों नहीं जनता अपने जन-प्रतिनिधियों पर पुलिस सुधारों का दवाब बनाती ?आपको जानकार हैरानी होगी कि अपने इलाकों के थानेदार तय करने में हम पहले वहां के जाति-समीकरण भी देखते हैं! इसलिए नहीं कि हम अनिवार्यतः जाति-प्रियता में श्रद्धा रखते हैं। इस से उस इलाके की पुलिसिंग आसान हो जाती है । कैसे हो जाती है यह कभी उस इलाके के थानेदार से एक पत्रकार के तौर पर नहीं आम आदमी बनकर पूछियेगा । वह खुलकर बताएगा। भारतीय पुलिस सेवा का ‘खंडहर’ यहीं हमारी आपकी आँखों के सामने बना है । कुछ स्तम्भ हमने खुद ढहा लिए, कुछ दूसरों ने मरम्मत नहीं होने दिए।
जिसे खंडहर कहा गया है,उसी खंडहर की ईंटें इस देश की कई भव्य और व्यबस्थित इमारतों की नींव में डाल कर उन्हें खड़ा किया गया है ।मुकुल और संतोष की शहादत ने हमें झकझोर दिया है । हम सन्न हैं । मनोबल न हिला हो, ऐसी भी बात नहीं है । पर हम टूटे नहीं हैं। हमें अपनी चुप्पी को शब्द बनाना आता है हमारा एक मूल्य-जगत है । फूको जैसे चिंतक भले ही इसे ‘सत्ता’ के साथ ‘देह’ और ‘दिमाग’ का अनुकूलन कहते हों,पर प्रतिरोध की संस्कृति इधर भी है । हाँ उसमें ‘आवाज’ की लिमिट है और यह भी कथित व्यबस्था बनाये रखने के लिए किया गया बताया जाता है ।
यह सही है कि हम में भी वो कमजोरियां घर कर गयी हैं जो जमीर को पंगु बना देती हैं । ‘One who serves his body,serves what is his,not what he is'(Plato) जैसी बातों में आस्था बनायेे रखने वाले लोग कम हो गए हैं । पर सच मानिए हम लड़ रहे हैं । जीत में आप लोगों की भी मदद आवश्यक है । पुलिस को सिर्फ मसाला मुहैया कराने वाली एजेंसी की नजर से न देखा जाए।
जो निंदा योग्य है उसे खूब गरियाया जाये,पर उसे हमारी ‘सर्विस’ के प्रतिनिधि के तौर पर न माना जाये । हमारी सेवा का प्रतिनिधित्व करने लायक अभी भी बहुत अज्ञात और अल्प-ज्ञात लोग हमारे बीच मौजूद हैं जो न सुधारों के दुकानदार हैं और न आत्म-सम्मान के कारोबारी ।
मथुरा में एकाध दिन में कोई नया एस पी सिटी आ जायेगा । फरह थाने को भी नया थानेदार मिल जायेगा । धीरे धीरे लोग सब भूल जाएंगे ।धीरे धीरे जवाहर बाग फिर पुरानी रंगत पा लेगा । धीरे धीरे नए पेड़ लगा दिए जायेंगे जो बिना किसी जल्दबाजी के धीरे धीरे उगेंगे । सब कुछ धीरे धीरे होगा ।धीरे धीरे न्याय होगा ।धीरे धीरे सजा होगी । हमारी समस्या किसी राज्य का कोई एक इंडिविजुअल नहीं है । हमारी समस्या रामवृक्ष भी नहीं है । हमारी समस्या सब कुछ का धीरे धीरे होना है ।धीरे धीरे सब कुछ उसी तरह हो जायेगा जो मुकुल और संतोष की मौत से पहले था ।
सर्वेशर दयाल सक्सेना ने भी क्या खूब लिखा था-
“…धीरे-धीरे ही घुन लगता है, अनाज मर जाता है।
धीरे-धीरे ही दीमकें सब कुछ चाट जाती हैं।
धीरे-धीरे ही विश्वास खो जाता है, साहस डर जाता है,
संकल्प सो जाता है ।
मेरे दोस्तों मैं इस देश का क्या करूँ
जो धीरे-धीरे खाली होता जा रहा है?
भरी बोतलों के पास खाली गिलास-सा पड़ा हुआ है।
मेरे दोस्तों !
धीरे-धीरे कुछ नहीं होता, सिर्फ मौत होती है।
धीरे धीरे कुछ नहीं आता,सिर्फ मौत आती है
सुनो ढोल की लय धीमी होती जा रही है।
धीरे-धीरे एक क्रान्ति यात्रा, शव-यात्रा में बदलती जा रही है ।”
इस ‘धीरे-धीरे’की गति का उत्तरदायी कौन है । शायद अकेली कोई एक इकाई तो नहीं ही होगी । विश्लेषण आप करें । हमें इसका ‘अधिकार’ नहीं है । जो लिख दिया वह भी जोखिम भरा है । पर मुकुल और संतोष के जोखिम के आगे तो नगण्य ही है । जाते जाते आदत से मजबूर,केदारनाथ अग्रवाल की यह पंक्तियाँ भी कह दूँ जो हमारी पीड़ा पर अक्सर सटीक चिपकती हैं …
‘सबसे आगे हम हैं
पांव दुखाने में
सबसे पीछे हम हैं
पांव पुजाने में
सबसे ऊपर हम हैं
व्योम झुकाने में
सबसे नीचे हम हैं
नींव उठाने में’
मजदूरों के लिखी गयी यह रचना कुछ हमारा भी दर्द कह जाती है । हाँ,मजदूरों को जो बगावत का हक़ लोकतंत्र कहलाता है उसे हमारे यहाँ कुछ और कहा जाता है । इसी अन्तर्संघर्ष में मुकुल और संतोष कब जवाहर बाग में घिर गए,उन्हें पता ही नहीं चला होगा । उन्हें प्रणाम ।
उम्मीद है आपको पत्र मिल जायेगा ।
धर्मेन्द्र ।
भारतीय पुलिस सेवा (उत्तर प्रदेश)
(लेखक भारतीय पुलिस सेवा (उत्तर प्रदेश) के अधिकारी हैं। रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा से साभार)