कोई अगर कहता है कि मोदी को गाँधीनगर से उठा कर दिल्ली के शाही तख़्त पर संघ के कथित हिन्दुत्ववाद और भाजपा के कथित राष्ट्रवाद ने बैठाया है, तो या तो वह बेहद नादान है या फिर बेहद प्रतिबद्ध संघभक्त.
सच्चाई यह है कि मोदी के उत्थान में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है लेनिन की सड़ी हुई लाश की गलीज़ दरारों में पनपते कीड़ों और नेहरूवाद के सड़ाँध भरे गटर में तैरते कमीनगी के लार्वा के संयोग से पैदा हुई उस टुच्ची वामपंथी-प्रगतिशील-गाँधीवादी-धर्मनिरपेक्ष-सेक्युलर बुद्धिपिशाच जमात ने, जिसे गुजरात के दंगे दिखाई आज तक दिखाए दे रहे हैं.
लेकिन उसकी आँख का ज़हरीला मोतियाबिंद न तो आज तक गोधरा की हैवानियत देख पाया, न 1984 का सिख नरसंहार और न ही 1983 में असम के नेल्ली में हुआ एकतरफ़ा मुस्लिमसंहारक ‘सेक्युलर’ दंगा. जिसे ए.पी.जे. अब्दुल कलाम तो ‘देश को नुक़सान पहुँचाने वाले’ एक ‘अवैज्ञानिक’ राष्ट्रपति लगे; लेकिन सोहराबुद्दीन शेख़ जैसे दुर्दांत अपराधी, जावेद शेख़ उर्फ़ ‘प्रणेश पिल्लै’ नाम के जिहादी दहशतगर्द के साथ मारी गई उसकी इशरत जहाँ नाम की प्रेमिका, मुंबई बम विस्फ़ोटों के ज़हरीले पिशाच याकूब मेमन और अब सिमी के 8 ख़तरनाक दहशतगर्द जिसे “मासूम” दिखते हैं.
यही लेफ़्ट-लिबरल-वामी-प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष गिरोह हैं जिन्होंने मोदी को गाँधीनगर से लाकर दिल्ली बैठाया, और अब भले ही इस मोतियाबिंद के चलते इन्हें दिखाई न दे रहा हो, लेकिन अपने वैचारिक अपराधों और हैवानियत से अपनी क़ब्र भी यह जमात रोज़ाना तेज़ी से खोद रही है.
जिस माओ के पेशाब से अपनी बौद्धिक हरमज़दगी के गढ़ जेएनयू में यह आज तक चराग़ जला रहे हैं, उसी माओ द्वारा प्रणीत ‘सांस्कृतिक क्रांति’ का भारतीय संस्करण इनकी नीच और घिनौनी कुत्तइयों की वजह से देश में कैसे धीरे-धीरे अंदर-अंदर सतह के नीचे उगलते-उबलते हुए आकार ले रहा है, इसका इन्हें ज़रा सा भी एहसास नहीं है.
और यह अच्छी बात ही है. जिस हैवान की दरिंदगी उस हद तक पहुँच गई हो जहाँ उसका सर्वनाश एकदम क़रीब हो, उसका ग़ुरूर और अहमक़पन में ऐसे अंधे और लापरवाह हो जाना न सिर्फ़ लाज़िमी है बल्कि ज़रूरी भी है.
– अरविंद कुमार – @FB