प्रियदर्शन
‘पाखी’ में कुमार विश्वास का इंटरव्यू छपने से लोग इतने उत्तेजित क्यों हैं- यह मेरी समझ में नहीं आ रहा। यह सच है कि कुमार हिंदी की आधुनिक गंभीर कविता में कहीं नहीं ठहरते, लेकिन वे एक लोकप्रिय गीतकार हैं। एक समृद्ध भाषा को बहुत सारी आवाज़ें, बहुत सारी चीज़ें मिलकर बनाती हैं- उसमें लोकप्रिय तत्वों की भी बहुत बड़ी भूमिका होती है। हिंदी को भी बहुत सारी आवाज़ें चाहिए- मुझे प्रसाद, निराला, महादेवी भी चाहिए, मुक्तिबोध, अज्ञेय और शमशेर भी चाहिए, भिन्न आस्वादों वाले दोनों केदार चाहिए, दिनमान की त्रयी रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना भी चाहिए, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल और वीरेन डंगवाल भी चाहिए, अनामिका, देवी प्रसाद मिश्र, विमल कुमार, निलय उपा)ध्यय और पवन करण भी चाहिए। मुझे सत्यनारायण, नचिकेता, नईम, रमेश रंजक, ज्ञान प्रकाश विवेक और इन सबके बीच कुमार विश्वास भी चाहिए। यह हमारे आलोचनात्मक विवेक पर निर्भर करता है कि हम उन्हें कितना मूल्यवान मानें, लेकिन उन्होंने बिल्कुल ज़ुबाननिकाला दे देने की सज़ा कुछ अतिरेकी क़िस्म की बात है। मैं एक समृद्ध-समर्थ हिंदी के भीतर कई तरह के आस्वाद चाहता हूं। कुमार विश्वास के कई गीतों में अपनी तरह की संवेदना है जिसका एक व्यापक किशोर पाठक या श्रोता वर्ग है। मैं भी किसी ख़ास समय में उनका आनंद ले सकता हूं- जैसे अपने कई फिल्मी गीतकारों का भी लुत्फ़ उठाता हूं। वैसे मैं बता दूं कि कुमार विश्वास की भाषा हिंदी के कई प्राधायकों की भाषा से ज्यादा साफ़-सुथरी और बेहतर है- उन्हें अशुद्ध और अधकचरी हिंदी में गाली देने वाले बहुत सारे लेखकों से बेहतर।
(स्रोत-एफबी)