सुजाता
मैं एकदम नहीं समझ पा रही हूँ कि अविवाहित पुरुष का पिता बनना सबको इतना क्यों खल रहा है। किसी ने लिखा यह इमोशनल अत्याचार है बच्चे पर क्योंकि एक स्त्री साथ नहीं है। किसी ने लिखा कि यह अत्याचार है क्योंकि बच्चे को माता पिता दोनों चाहिए होते हैं। किसी ने लिखा जो एक पत्नी को सह नहीं सकते वे क्या बच्चे को संभालेंगे।
मुझे ऐतराज़ है। यह बात एकदम सहमत होने लायक है कि आपका पिता बनने का मन है और अविवाहित रहने का भी तो बेहतर है कि आप एक संतान गोद ले लें। करण जौहर ने यही किया होता तो आप उनकी तारीफ़ करते, कैसे न करते! चूंकि यह सरोगेसी से हुआ तो इसकी आलोचना की जा रही है। सिर्फ यही बात ऐतराज़ लायक नहीं है मेरे लिए। इसके जो तर्क फेसबुक पर देख रही हूँ वे भी बेहद अतार्किक हैं। सोच कर देखिए कि अकेले पुरुष , पुरुष भी ऐसा जिसके पास सुविधाओं का अभाव ही नहीं हो सकता कभी, उसके अच्छा पिता होने की क्षमता पर आपको शक है जो एकदम अतार्किक है। और जैसे आपके आस पास जो पत्नियों के साथ रहने वाले पिता हैं वे एकदम आदर्श हैं। कितनी स्त्रियां और पुरुष हादसों , तलाक , वैधव्य जैसी स्थितियों में बच्चों को पालते हैं। क्या उन सबके बच्चे अत्याचार सह रहे हैं !
जिस वक़्त आप बच्चे के पालन पोषण के लिए एक औरत का होना इतना ज़्यादा अनिवार्य और एक अकेले पुरुष का होना गैर ज़िम्मेदारी मान रहे हैं उस वक़्त आप फिर से स्त्री को माँ के उसी माहात्म्य के चक्रव्यूह में धकेल रहे हैं जहाँ से कड़ी सामाजिक कंडीशनिंग को चुनौती देता स्त्रीवाद अभी ठीक से उभार भी नही पाया। सारी टीवी एड सीरियल, फिल्मे, एक अच्छी माँ के चरित्र को व्याख्यायित कर रहे हैं। स्त्री के बिना बच्चा नहीं पलता तो उसका करियर और नौकरी छोड़ देना भी इन सब तर्कों से जायज़ ही मान लिया जाना चाहिए।
आप पुरुष के पिता होने और बच्चे को अकेले संभाल और पाल सकने की क्षमता पर ऐसे तर्क पेश करके स्त्री को उसकी रूढ़ छवि में कैद करने के पक्ष में होते जा रहे हैं, पुरुष को उसकी रूढ़ छवि से न निकलने देने के पक्ष में होते जा रहे हैं।
इसमें क्या गलत है अगर कोई पुरुष शादी नही करना चाहता लेकिन पिता बनना चाहता है। आज भी मुझे 20 साल पीछे जाने का मौका मिले तो मैं यही फैसला करना चाहूँगी कि अविवाहित रहूँ लेकिन माँ ज़रूर बनूँ। ऐसे में बच्चे को गोद लेना महानता है लेकिन अपनी कोख में पालना अपराध है। आपके समाज की कितनी विडंबनाएं हैं और कितने नाटक हैं कितने दोगलेपन हैं जिनको समझने में अभी भी कितनी मुश्किल है क्योंकि समझने के लिए खुद अपनी ट्रेनिंग के खिलाफ खड़े होना पड़ता है।
जहाँ तक शौक का सवाल है ,तो आप सुनिश्चित रूप से नहीं कह सकते कि यह शौक का ही मामला है जो करण जौहर ने किया। बाक़ी इस देश में बच्चे शौक से ही पैदा किए जाते रहे हैं। पहले 10 – 12 हुआ करते थे। कभी मार्केट में तरह तरह के कपडे, हेयरबैंड, परी वाले ड्रेसेज़ देखकर लोग लड़की के माबाप बनने का शौक रखते हैं। कोई बेटे के लिए घर में लड़कियों की लाइन लगाता है तो वह भी इसी देश समाज की बात है। कोई शादी के नौवें महीने में ही अभिभावक हो जाता है और 5 साल बाद पता लगता है कि आपस में पट ही नहीं रही …तो यह शौक का ही मामला है। आपत्ति सिर्फ इन फैसलों को निभाने में गैर ज़िम्मेदारी को लेकर की जा सकती है। फैसलों पर नहीं।
सोचिए, आपको पुरुष के अकेले बाप बनने पर आपत्ति है ? उसके सुविधा संपन्न होने और फिर इस फैसले पर आपत्ति है ? या आपको सिर्फ सरोगेसी पर आपत्ति है (लेखिका दिल्ली वि.वि. में लेक्चरर हैं और यह लेख उनके एफबी वॉल से साभार लिया गया है)