-रंगनाथ सिंह-
अगर अपवाद छोड़ दिए जाएँ तो जहाँ तक मेरी जानकारी है हिंदी पत्रकारिता में कोई भी पत्रकार उतना ही “नैतिक” या “साहसी” होता है जितना कि उसका मालिक हो। हिंदी पत्रकारिता में “नैतिकता” और “साहस” मालिक से छनकर संपादक, उससे कार्यकारी संपादक फिर उससे चीफ सब से होते हुए सब एडिटर तक पहुँचती है।
यानी हिंदी पत्रकारिता में “नैतिकता” और “साहस” ट्रिकल डाउन थियरी से चलते हैं। नीचे तक वही पहुँचता है जो सबसे ऊपर वाले से चू-चा कर आया हो। अंग्रेजी पत्रकारिता से कोई वास्ता नहीं रहा है इसलिए उसके बारे में कह नहीं सकता लेकिन हिंदी पत्रकारिता में जिसके मुँह में भी थोड़ी भी सवाल पूछने वाली “जबान” देखी है उसे बेरोजगार या दरकिनार देखा है।
हिंदी पत्रकारिता के जितने भी संपादकों के बारे में मैंने सुना-जाना है उनमें से किसी को “सवाल पूछने वालों” को नौकरी देते या किसी तरह मिल गई तो हो प्रोत्साहित करते नहीं देखा है। मैं इस बात से सहमत हूँ कि “पत्रकार सवाल नहीं करेगा तो करेगा क्या?” लेकिन हिंदी के सभी स्वनामधन्य संपादकों से एक सवाल मेरा भी है, “पत्रकार सवाल करेगा तो बेरोजगार होगा कि नहीं?”
(लेखक पत्रकार हैं)
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