दिलीप मंडल,पूर्व प्रबंध संपादक,इंडिया टुडे
पत्रकारिता की दुनिया में जब मैं क़दम रख रहा था तब हमारे सामने दो सुपरस्टार एंग्री यंगमैन संपादक थे। एसपी और एमजे। एसपी यानी रविवार के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह और संडे और फिर द टेलीग्राफ़ के संपादक एमजे अकबर। उस दौर में राजेंद्र माथुर, राहुल बारपुते और प्रभाष जोशी वगैरह भी थे पर ये तीनों सम्मानित थे, लेकिन मिज़ाज से यंग नहीं थे। एंग्री तो बिल्कुल नहीं थे। ये तीनों भले लोग थे।
एसपी और एमजे अपने समय में पत्रकारिता की सबसे यशस्वी और सबसे उत्पाती जोड़ी थी। एक समय तो यह भी कहा जाता था कि मंत्री और मुख्यमंत्री लोग मनाते थे कि ये लोग उनकी कवर स्टोरी न छापें क्योंकि कवर स्टोरी छपी नहीं कि कुर्सी गई, टाइप माहौल बन गया था।
अलग-अलग समय में मुझे एसपी और एमजे दोनों के साथ काम करने का मौक़ा मिला था। 1993 में मैं पहली बार इंडिया टुडे में एसपी की वजह से ही आया। इंडिया टुडे में मैं एसपी के कॉलम का पेज देखता था तो इसके लगभग बीस साल और सात-आठ नौकरियों के बाद एमजे और अरुण पुरी ने मुझे इंडिया टुडे का एक्ज़िक्यूटिव एडिटर बनाया। इस बीच अकबर जब संभवत: 2002 में स्टार न्यूज़ के लिए ‘अकबर का दरबार’ कार्यक्रम करते थे तब मैं वहां सीनियर प्रोड्यूसर के पद पर था। होने को तो मैं प्रभाष जोशी के जनसत्ता में भी था। लेकिन प्रभाष जी आदरणीय थे, जबकि एसपी और एमजे अपेक्षाकृत दोस्ताना। इसलिए इन दोनों से पत्रकारिता का हुनर सिखने का मौक़ा ज्यादा मिला।
एसपी के बारे में मैं पहले भी लिखता रहा हूँ। इसलिए आज एमजे की बात। बीजेपी ने उन्हें झारखंड से राज्यसभा में लाने का फ़ैसला किया है। यह तो एमजे की राजनीति है। और इस राजनीति से मेरा विरोध उतना ही पुराना है जितना मेरा लिखना-पढना।
मेरा परिचय पत्रकार एमजे से है। मेरी नज़र में भारतीय पत्रकारिता में लिखने का जो कौशल एमजे के पास है, उसकी ज्यादातर लोग कामना ही कर सकते हैं। इसके पीछे कितना गहन अध्ययन होता है, उसका कुछ अंदाज़ा मुझे हैं। यह एमजे का फ़ैसला है कि वे अपने इस ज्ञान का इस्तेमाल पहले कांग्रेस और अब बीजेपी के लिये करना चाहते हैं।
एमजे मैगज़ीन पत्रकारिता, बल्कि व्यापक अर्थों में कहें तो नैरेटिव जर्नलिज़्म के बेताज बादशाह रहे हैं और मुझे इस क्षेत्र में उनके आस पास का कोई दिखता नहीं है। संडे, टेलीग्राफ़ और एशियन एज, ये तीन चीज़ें तो एमजे ने शून्य से पैदा कीं। हालाँकि एमजे ने पत्रकारिता और राजनीति का अजीब सा कॉकटेल बना रखा है, जहाँ कब कौन किस पर हावी होता है, यह कहना आसान नही होता।
एमजे का राजनीति में होना भारतीय पत्रकारिता का बड़ा नुक़सान है। खासकर ऐसे समय में जब कि पत्रकारिता विश्वास का सबसे बड़ा संकट झेल रही है, पत्रकार जब समाज में सम्मानित नहीं रहे और जब फिल्मों में पत्रकार जोकर या विलेन की शक्ल में ही नज़र आता है।
पत्रकारिता में आपकी कमी खलेगी एमजे। (@fb)