-डॉ.वर्तिका नंदा-
सालों से मीडिया ऐसी घटनाएं कवर करता रहा और बाद में आलोचना का शिकार हुआ। इस समय सब आंखों के सामने है। जयललिता की सांसें अटकी हैं। उनके समर्थक बेहद उदास हैं। यह मौका उनके दुख का है। अटकलों का नहीं। किस बात की अटकलें और अटकलें लगाने और हांफते हुए खबर देने के लिए क्या किसी की जान महज एक खबर है। क्या किसी इंसान की जान के लिए रोते लोगों को महज एक दिखावा माना जा सकता है। जान को सम्मान दीजिए। सांसों को भी। खबर महज अटकलों का संसार नहीं है। खबर कही जाए पर गरिमा भी बची रहे।
फिलहाल तो लग ऐसा रहा है कि मीडिया के मेरे कुछ साथी जल्द से जल्द ब्रेकिंग न्यूज पाने के लिए ज्यादा उत्सुक हैं मानो जयललिता की सांसों की डोर की पहली खबर उनसे छूटी तो उनकी टीआरपी ही छूट जाएगी।
जिसे मेरा यह लिखे अखरे, वह यह भी सोचे कि यही उनके किसी अपने के साथ होता तो जान को लेकर ऐसी बेचैन अटकलबाजी कैसी लगती।।।। खबर जानने के लिए उत्सुकता समझ आती है लेकिन किसी की जान के बचने – न बचने के पल को हथिया लेने की बेताबी मानवीय और संवेदनशील प्रक्रिया कतई नहीं लगती।