पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है ।सभी जानते हैं कि कलम की ताकत तलवार से ज्यादा होती है तो क्या यह बेहतर नहीं होता कि देश निर्माण के मौजूदा समय में अपनी इस ताकत का प्रयोग यह स्तंभ देश की भलाई और लोगों को सहयोग करने के लिए प्रेरित करने में लगाता ? सरकार के इस कदम से उनको और देश को होने वाले फायदे बताता बनिस्बत उन्हें उकसाने के जैसा कि कुछ लोग कर रहे हैं ! डाँ नीलम महेंद्र का आलेख-
केन्द्र सरकार द्वारा पुराने 500 और 1000 के नोटों का चलन बन्द करने एवं नए 2000 के नोटों के चलन से पूरे देश में थोड़ी बहुत अव्यवस्था का माहौल है। आखिर इतना बड़ा देश जो कि विश्व में सबसे अधिक जनसंख्या वाले देशों में दूसरे स्थान पर हो थोड़ी बहुत अव्यवस्था तो होगी ही।
राष्ट्र के नाम अपने उद्बोधन में प्रधानमंत्री ने यह विश्वास जताया था कि इस पूरी प्रक्रिया में देशवासियों को तकलीफ तो होगी लेकिन इस देश के आम आदमी को भ्रष्टाचार और कुछ दिनों की असुविधा में से चुनाव करना हो तो वे निश्चित ही असुविधा को चुनेंगे और वे सही थे।
आज इस देश का आम नागरिक परेशानी के बावजूद प्रधानमंत्री जी के साथ है जो कि इस देश के उज्ज्वल भविष्य की ओर संकेत करता है। यह बात सही है कि केवल कुछ नोटों को बन्द कर देने से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं हो सकता इसलिए प्रधानमंत्री जी ने यह स्पष्ट किया है कि काला धन उन्मूलन के लिए अभी उनके तरकश से और तीर आना बाकी हैं।
भ्रष्टाचार इस देश में बहुत ही गहरी पैठ बना चुका था। आम आदमी भ्रष्टाचार के आगे बेबस था यहाँ तक कि भ्रष्टाचार हमारे देश के सिस्टम का हिस्सा बन चुका था जिस प्रकार हमारे देश में काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था चल रही थी उसी प्रकार सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचारियों द्वारा एक समानांतर सरकार चलायी जा रही थी।
नेताओं सरकारी अधिकारियों बड़े बड़े कारपोरेट घरानों का तामझाम इसी काले धन पर चलता था। अमीरों और गरीबों के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही थी।
यह इस देश का दुर्भाग्य है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होते हुए भी 70 सालों तक जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के बावजूद देश आगे जाने की बजाय पीछे ही गया है।आप इसे क्या कहेंगे कि आजादी के 70 सालों बाद भी इस देश में बेसिक इन्फ्रास्ट्रकचर की कमी है ?गाँवों को छोड़िये शहरों तक में पीने का साफ पानी मिलना मुश्किल है !आज भी कई प्रदेशों के शहरों तक में 24 घंटे बिजली सप्लाई एक स्वप्न है ?1947 से लेकर आज तक 2016 में हमारे गांवों में लोग आज भी खुले में शौच जाते हैं !हमारी सबसे पवित्र नदी जिसे हम मोक्षदायिनी माँ गंगा कहते हैं वो एक नाले में तब्दील हो चुकी है ?आजादी के बाद से अब तक हमारे देश में इतने घोटाले हुए हमारी सरकारों ने जाँच भी की लेकिन फिर क्या? क्या किसी एक को भी सज़ा हुई ? एक भी नेता जेल गया ? क्या घोटाले होने बन्द हो गए ?
यहाँ पर कुछ तथ्यों का उल्लेख उन बुद्धिजीवियों के लिए आवश्यक है जो विदेशों में जमा काले धन को मुद्दा बने रहे हैं कि 2004 तक स्विस बैंकों में जमा धन के मामले में भारत 37 वें न० पर था । 2007 तक भारत 50 देशों में था लेकिन 2016 में यह 75वें स्थान पर पहुँच गया है। स्विस बैंकों में भारत का धन लगभग 4% कम हो गया है ।ताजा रिपोर्ट के अनुसार स्विस बैंकों में भारत का धन वहाँ कुल जमा धन का मात्र 0.1% रह गया है।
केंद्र सरकार ने काला धन रखने वाले 60 लोगों की सूची तैयार की है जिनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू कर दी गई है, यह सभी बड़े बड़े कारपोरेट घरानों से जुड़े हैं।
विदेशों से काला धन वापस लाना या फिर उन लोगों को भारत वापस लाना भारत सरकार के लिए मुश्किल है जो कि घोटाले कर के विदेश भाग गए हैं क्योंकि इसमें दूसरे देश का कानून काम करता है और हमारी सरकार दूसरे देश के कानूनी मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती । इसलिए भारत सरकार स्विजरलैंड समेत अन्य कई देशों से ऐसे मामलों के लिए सन्धी कर रही है जिससे कि ऐसे मामलों में आरोपी दूसरे देशों के कानून की आड़ में बच नहीं पाए और वहाँ की सरकारों का सहयोग भारत सरकार को प्राप्त हो।
कुछ लोग ऊर्जित पटेल के हस्ताक्षर पर सवाल उठा रहे हैं कि जब 6 महीनों से नए नोट छप रहे थे और इन्होंने कार्यभार सितंबर में संभाला तो नए नोटों पर इनके हस्ताक्षर कैसे हैं ।तो हम सभी के लिए यह जानना आवश्यक है कि नोटों की छपाई अनेक प्रक्रियाओं से गुजरती है डिजाइनिंग से लेकर पेपर तैयार करने तक , तो नए नोट बनाने की प्रक्रिया भले ही 6 महीने पहले शुरू हुई थी लेकिन छपाई का काम ऊर्जित पटेल के कार्यभार ग्रहण करने के बाद ही शुरू हुआ (आई बी टी टाइम्स )
अब अगर एक आदमी जो कि इस देश का प्रधानमंत्री है , इस देश को आशवासन दे रहा है कि उसे 50 दिन का समय दीजिए उसके बाद जिस चौराहे पर जो सज़ा देनी हो दे देना तो ऐसा क्यों है कि हम किसी एक पार्टी को 70 साल तो दे सकते हैं लेकिन एक प्रधानमंत्री को 50 दिन भी नहीं ?
पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है ।सभी जानते हैं कि कलम की ताकत तलवार से ज्यादा होती है तो क्या यह बेहतर नहीं होता कि देश निर्माण के मौजूदा समय में अपनी इस ताकत का प्रयोग यह स्तंभ देश की भलाई और लोगों को सहयोग करने के लिए प्रेरित करने में लगाता ? सरकार के इस कदम से उनको और देश को होने वाले फायदे बताता बनिस्बत उन्हें उकसाने के जैसा कि कुछ लोग कर रहे हैं !आज अखबारों और न्यूज़ चैनलों में आम आदमी की तकलीफ को हेडलाइन बनाया जा रहा है। आप सभी से एक सवाल क्या इससे पहले हमारे देश में खुशहाली थी ?
क्या कोई भूखा नहीं सोता था ?
क्या किसानों द्वारा आत्महत्याएं नहीं होती थीं ?
क्या हमारा कोई भी युवा बेरोजगार नहीं था ?
क्या राशन की दुकानों में कभी लाइनें नहीं लगीं ?
क्या बरसातों में हमारी राजधानी समेत अनेक बड़े बड़े शहर पानी की व्यवस्थित निकासी न होने के कारण बाढ़ का शिकार नहीं हो जाते ?
क्या किसी भी सरकारी दफतर में आम आदमी का काम एक बार में बिना पहचान या रिश्वत के हो जाता था ?
हमारे इस आम आदमी का कष्ट आपको 70 साल से नहीं दिख रहा था ? इन कष्टों से उस आम आदमी का जीवन परेशानियों से भर रहा था उसका सामाजिक स्तर भी गिर रहा था उसकी मेहनत की कमाई रिश्वत में जा रही थी ।कोई उसे सुनने वाला नहीं था और वो थकहार कर इन सब कष्टों को अपने जीवन का हिस्सा मानकर स्वीकार कर चुका था ।लेकिन किसी ने इस आम आदमी के दर्द को अपनी आवाज़ नहीं दी !आज वह आम आदमी लाइन में खुशी से खड़ा है , एक बेहतर कल की आस में वो अपना आज कुर्बान करने को तैयार है।
उसे स्वतंत्रता संग्राम याद है जब इस देश का बच्चा बच्चा उस लड़ाई का हिस्सा बनने के लिए तत्पर था। आज उसे मौका मिला है फिर से एक स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बनने का , स्वतंत्रता भ्रष्टाचार से, काले धन से ,लम्बी कतारों से , लम्बे इंतजार से , अरबों करोड़ों के घोटालों से, तो वह खुशी खुशी इस आंदोलन का हिस्सा बनने को तैयार है । वो जानता है कि एक नए भारत का निर्माण हो रहा है और सृजन आसान नहीं होता , सहनशीलता ,त्याग,समर्पण सभी कुछ लगता है । 70 साल पुरानी जड़ें उखाड़ने में समय और मेहनत दोनों लगेंगे ।यह काम एक अकेला आदमी नहीं कर सकता। देश हमारा है और हमें इसमें अपना सहयोग देना ही होगा ।
एक गमले में पौधा भी लगाते हैं तो रोज खाद पानी हवा और धूप देनी पड़ती है और सब्र से प्रतीक्षा करनी पड़ती है तब जाकर वह खिलता है।
एक मादा जानवर भी अपने बच्चे को जन्म देने के लिए सहनशीलता से प्रसव पीड़ा से गुजरती है लेकिन बच्चे का मुख देखते ही अपनी पीड़ा भूल जाती है ।जब एक जानवर इस बात को समझता है तो हम मानव इस बात को क्यों नहीं समझ पा रहे कि हमारा देश अभी प्रसव पीड़ा से गुजर रहा है थोड़ी तकलीफ़ सह लीजिए नए भारत का सृजन हो रहा है।नए भारत के सूर्योदय की पहली किरण निश्चित ही इस पीड़ा को भुला देगी ।
(डाँ नीलम महेंद्र)