– अभिषेक श्रीवास्तव
लोग कहेंगे कि मैं फिर जनसत्ता को लेकर बैठ गया, लेकिन क्या करूं। इसके कुकर्म ही कुछ ऐसे हैं कि कंट्रोल नहीं होता। आज रविवारी परिशिष्ट के पेज 2 पर एक कहानी छपी है। अखबार में कहानी का शीर्षक है ”बसंत जैतली” और कहानीकार का नाम है ”इंकलाब”।
एक सरसरी नज़र में शायद यह गलती पकड़ में न आए। अब ज़रा ई-पेपर खोलिए।
वहां इस कहानी का नाम ”इंकलाब” दिखेगा और लेखक का नाम ”बसंत जैतली”।
एक बार को लगेगा कि हां, गलती तो हुई थी लेकिन अखबार ने जहां संभव था इसे दुरुस्त कर दिया।
बहरहाल, इससे ज्यादा दिलचस्प कहानी आगे की है कि जब आप इस पन्ने का पीडीएफ डाउनलोड करेंगे। डाउनलोड की हुई फाइल में फिर से कहानी ”बसंत जैतली” और कहानीकार ”इंकलाब” हो जाते हैं।
क्या ये कोई खास तकनीक है पाठकों को धोखा देने की या फिर रविवारी परिशिष्ट के कर्मचारी भांग खाकर काम करते हैं?
सोचिए, इस बार भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार जिस प्रांजल धर नाम के कवि को मिला है उसकी कविता इसी भांग की पीनक में इसी पन्ने पर छापी गई थी। बाल-बाल बच गए प्रांजल, वरना कुछ दिनों पहले एक अनूदित कविता का शीर्षक ही छप गया था ”अनुवाद”। वास्तव में, इस अखबार में ”कुछ भी छपना खतरे से खाली नहीं”।
(फेसबुक से साभार)