-दिलीप मंडल,वरिष्ठ पत्रकार-
कुछ लोग अंदाज़ा नहीं लगा पा रहे हैं कि भारत करोड़ों पत्रकारों के युग में प्रवेश कर चुका है।
सोशल मीडिया युग में आप, हम सब पत्रकार हैं। आपकी फ़ेसबुक पोस्ट या एक पिद्दी सी नज़र आने वाली वेबसाइट की खबर वायरल होकर वहाँ तक पहुँच सकती है, जितने कई चैनलों के कुल दर्शक नहीं हैं।
मीडिया और आंदोलनों का बदलता समाजशास्त्र !
इस साल के देश के तीन सबसे बड़े जन आंदोलन रोहित वेमुला, डेल्टा मेघवाल और ऊना गोआतंक के मुद्दे पर हुए।
एक में केंद्रीय मंत्री का मंत्रालय बदल गया। दूसरे में पहली बार ऐसे किसी मामले पर सीबीआई जाँच की घोषणा हुई और तीसरे आंदोलन के कारण एक मुख्यमंत्री की कुर्सी गई।
पहली बार किसी मुख्यमंत्री ने फ़ेसबुक पर इस्तीफ़ा दिया।
इन आंदोलनों में इतना दम था कि कई कई दिन तक संसद को इनकी चर्चा करनी पड़ी। प्रधानमंत्री को अपने सामने मुर्दाबाद के नारे सुनने पड़े।
इन आंदोलनों के शुरुआती दस दिन का मीडिया कवरेज देखिए। किसी चैनल ने कुछ नहीं दिखाया। कोई डिबेट नहीं हुई।
रोहित वेमुला के साथियों के सामाजिक बहिष्कार से लेकर उसकी मौत के अगले दिन देश भर में आंदोलन भड़कने तक चैनलों ने पहला शब्द नहीं बोला।
डेल्टा मामले पर आख़िर तक चुप्पी रही।
ऊना गाय आतंकवाद का वीडियो आने के 11 दिन बाद तक चैनलों ने कुछ नहीं दिखाया।
इनमें से कोई भी आंदोलन चैनलों या अख़बारों का मोहताज नहीं था।
सोशल मीडिया की लहर पर चले ये आंदोलन।
बदलते वक़्त को पहचानिए। वह आ चुका है। आपके आसपास है।