अखिलेश कुमार
जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्याल(जेएनयू) के पूर्वांचल में स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान पिछले कुछ वर्षों से कई मसलों को लेकर चर्चा में है। इन सभी मसलों में छात्रावास और एलूमिनॉय एसोसिएशन के नाम पर एक पब्लिक संस्थान को एनजीओ बनाने की पटकथा लिखे जाने का षडयंत्र प्रमुख रूप से है। दरअसल छात्र हित के नाम पर तथाकथित एलूमिनॉय एसोसिएशन आइआइएमसीएए यानि ‘इमका’ बना है जिसकी रुपरेखा ठीक प्रेस क्लब या यू कहे तो लंदन के कॉफी हाउस क्लब के रुप में विकसित हो चुका है। जिसकी सदस्यता लेने के लिए यूरोप के काले लोगों को पैसा देना पड़ता था। छात्रों की समस्या से इसका दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। इसकी सारी नीतियां ऐसी बनी है मानो हिटलर ने बनाया हो। भाई-भतीजाबाद, चमचागीरी, मानसिक अय्याशी के लिए बना तथाकथित एलूमिनॉय एसोसिएशन एक एनजीओ के रूप में विकसित हो चुका है। दुर्भाग्य है कि भारत सरकार की स्वायत संस्था भारतीय जन संचार संस्थान एनजीओ की गिरफ्त में आ चुका है। जिसे एलूमिनॉय कहकर संबोधित किया जा रहा है, उसमें संस्थान से पास हुए 10 फीसद छात्र भी सक्रिय नहीं है। एनजीओ के रुप में विकसित तथाकथित एलूमिनॉय एसोसिएशन ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह अपना जाल बिछा लिया है मसलन दिल्ली चैप्टर, मुबंई चैप्टर, चंडीगढ़ चैप्टर के अलावा लगभग सभी राज्यों के राजधानी में मीटिंग होती है लेकिन इस मीटिंग में किस मुद्दें पर चर्चा होती है किसी को पता नहीं चलता। सवाल तो आइआइएमसी प्रशासन पर भी उठता है कि व्यक्ति विशेष की पूजा के लिए एक पब्लिक संस्थान को उपयोग करने की खूली छूट क्यों दी जा रही है। पिछले दिनों 19 अगस्त को संस्थान का फाउंडेशन डे मनाया गया जबकि आधिकारिक रूप से 17 अगस्त 1965 को तात्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी ने इसकी अधारशिला रखी थी।
पत्रकारिता का मक्का, ऑक्सफोर्ड जैसी तमाम उपमाओं से अलंकृत भारतीय जनसंचार संस्थान ने गोल्डेन जुबली तो मना ली लेकिन पिछले 25 साल से हॉस्टल के अभाव में संस्थान के छात्र तकलीफ़ों की रजत जयंती मना रहे हैं। सोचने वाली बात है कि जिस संस्थान में लड़कों के लिए छात्रावास की सुविधा न हो उसे राष्ट्रीय महत्व का दर्जा मिलना ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी अंधे सज्जन को मंहगा चश्मा पहनाना। दरअसल पिछले 20 साल से संस्थान में लड़कों के लिए छात्रावास की व्यवस्था नहीं है। इस कारण प्रतिवर्ष सैंकड़ों छात्र आस-पास के इलाकों में रहने के लिए विवश हैं। बेर सराय, कटवारिया सराय, किशनगढ़ और मुनीरका ये कुछ चुनिंदा जगह है जहां पत्रकारिता का सपना संजोंए सैंकड़ों छात्र महंगा रूम रेंट देकर भी तिहाड़ जेल के समान अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर हैं। आकड़ों को देखे तो उत्तर भारत के ग्रामीण पृष्ठभूमि के छात्र इस दंश को झेल रहे हैं। उनकी पत्रकारिता गंगा ढ़ाबा का पराठा और आचार में लिपट कर घूंट रही है। कुछ ही दिन पहले आइआइएमसी को राष्ट्रीय महत्व का संस्थान बनने की खबर आई। बातचीत के क्रम में कई छात्र कहते हैं कि जिस संस्थान ने बोफोर्स कांड का पर्दाफाश चित्रा सुब्रह्मण्यम जैसी पत्रकार दिया अब वो आइआइएमसी नहीं रहा। नाम नहीं बताने की शर्त पर एक छात्र ने कहा आइआइएमसी के नौ महीने का यह पीजी डिप्लोमा गर्भपात के समान है। इसकी शैक्षणिक व्यवस्था में कई खांमियां हैं। एक-दो फैकल्टी को छोड़कर सभी बाहर से आते हैं। इस बीच छात्र पढ़ाई कम उनके व्यक्तित्व को लेकर भावुक होते रहते हैं। एक-दो क्लास तो फोन नंबर और मेल आईडी लेने में ही बीत जाती है। और भी कई सवाल है जैसे प्रसारण पत्रकारिता में ठीक से एक दिन भी पीटूसी का अभ्यास नहीं कराया जाता है।
दो जून 2012 को पार्लियामेंट की स्थायी समिति ने आइआइएमसी को अपग्रेड करने के सुझाव को ठंडे बस्ते में डाल दिया था। दूसरी तरफ यूजीसी ने इसके सिलेबस को मान्यता ही नहीं दिया। बहरहाल 10 जुलाई के यूनियन बजट में अरूण जेटली ने दो अन्य संस्थानों के साथ आइआइएमसी को अपग्रेड करने की घोषणा की है तो अटकलें तेज हो
गई हैं। ध्यान रहे कि सत्यजीत रे फिल्म और टेलिविजन संस्थान कोलकत्ता और एफ टी आई पूणे को राष्ट्रीय महत्व का औपचारिकताएं पूरी हो चुकी है। जबकि आइआइएमसी पर संसद के स्थायी समिति में काम चल रहा है। बता दें कि जिस संस्थान से निकल कर छात्र देश दुनिया के सवालों पर मंथन करते हैं, लिखते हैं। वे संघर्षशील पत्रकार अपनी पीड़ा को बयां नहीं कर पाते हैं। ऐसा नहीं हैं कि सरकार इसके लिए तैयार नहीं है बल्कि संस्थान ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए इसे महज मुद्दा बनाकर छोड़ दिया है। नाम नहीं बताने की शर्त पर संस्थान से पढ़कर निकले वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं कि संस्थान में घोर अनियमितताए है। उल्लेखनीय है कि जब आइआइएमसी की स्थापना हुई थी तब लड़कों के लिए भी छात्रावास की सुविधा थी। मानवाधिकार संगठन जुड़े वरिष्ठ पत्रकार सत्येन्द्र रंजन कहते हैं कि 1989 तक लड़कों के लिए छत्रावास की सुविधा थी उसके बाद से इसे हटा दिया गया। सत्येन्द्र रंजन इसे छात्रों के साथ अन्याय बताते हैं।
(लेखक पत्रकार हैं)