मनोज कुमार
हिन्दी के प्रति निष्ठा जताने वालों के लिये हर साल सितम्बर की 14 तारीख रुदन का दिन होता है। इस एक दिनी विलाप के लिये वे पूरे वर्ष भीतर ही भीतर तैयारी करते हैं लेकिन अनुभव हुआ है कि सालाना तैयारी हिन्दी में न होकर लगभग घृणा की जाने वाली भाषा अंग्रेजी में होती है। हिन्दी को प्रतिष्ठापित करने की कोशिश स्वाधीनता के पूर्व से हो रही है और हर एक कोशिश के साथ अंग्रेजी भाषा का विस्तार होता गया। स्वाधीनता के पूर्व और बाद के आरंभिक वर्षों में हिन्दी माध्यम के हजारों शालायें थी लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में हर गांव और गली में महात्मा गांधी विद्यालय के स्थान पर पब्लिक स्कूल आरंभ हो चुका है। ऐसे में हम अपनी आने वाली पीढ़ी को कैसे और कितनी हिन्दी सिखा पायेंगे, एक सोचनीय सवाल है। अंग्रेजी भाषा में शिक्षा देने वाली शालाओं को हतोत्साहित क्यों नहीं कर रहे हैं? क्यों हम अपनी हिन्दी भाषा में शिक्षा देेने वाली शालाओं की दशा सुधारने की दिशा में कोशिश नहीे करते? शिक्षा ही संस्कृति की बुनियाद है और भाषा इसके लिये माध्यम। हमने अपनी बुनियाद और माध्यम दोनो को ही कमजोर कर दिया है। फिर रुदन किस बात का? जो है, ठीक है।
अब थोड़ी बात, समाज को शिक्षित करने का एक बड़ा माध्यम पत्रकारिता पर। पत्रकारिता ने स्वयं में अंग्रेजी का एक शब्द गढ़ लिया है मीडिया। मीडिया शब्द के अर्थ पर यहां चर्चा करना अनुचित लगता है लेकिन इससे यह बात तो साफ हो जाती है कि वह भी हिन्दी के प्रति बहुत रूचिवान नहीं रहा। हालांकि बाजार के लिये उसने हिन्दी भाषा को चुना है और अंग्रेजी के प्रकाशन हो या प्रसारण, उन्हें हिन्दी में आना पड़ा है। उसने अपनी जरूरत तो समझ ली लेकिन अंग्रेजी का मोह नहीं छोड़ पाया, सो वह ठेठ हिन्दी में न आकर हिंग्लिश में हिन्दीभाषियों पर कब्जा करने लगा। साठ और सत्तर के दशक में जन्मी पीढ़ी की अक्षर ज्ञान के लिये प्रथम पाठशाला अखबार के पन्ने होते थे लेकिन अब इन पन्नों से सीखने का अर्थ स्वयं को उलझन में डालना है। भाषा का जो बंटाधार इन दिनों तथाकथित पत्रकारिता वाले मीडिया में हो रहा है, वह अक्षम्य है। किसी ने बंधन नहीं डाला है कि प्रकाशन-प्रसारण हिन्दी में करें लेकिन लालच में हिन्दी में आना मजबूरी थी और इस मजबूरी में भी हिन्दी पट्टी को उसने मजबूर कर दिया कि वे हिन्दी नहीं, अंग्रेजी भी नहीं, हिंग्लिश पढ़ें। एक ऐसी भाषा के शिकार हो जायें जो न आपको घर का रखेगी न घाट का।
हैरानी की बात है कि जब हम कहते हैं कि पत्रकारिता, माफ करेंगे, मीडिया, जब कहती है कि वह व्यवसायिक हो चली तो उसे इस बात को समझ लेना चाहिये कि हर व्यवसाय अपने गुण-धर्म का पालन करता है लेकिन मीडिया तो इसमें भी असफल होता दिखता है। क्या हम उससे यह सवाल कर सकते हैं कि हिन्दी के प्रकाशन-प्रसारण में तो बेधडक़ अंग्रेजी शब्दों का उपयोग होता है तो क्या अंग्रेजी के प्रकाशन-प्रसारण में हिन्दी के लिये भी मन क्या इतना ही उदार होता है? जवाब हां में तो हो नहीं सकता। अब हम सबको मान लेना चाहिये कि हम हिन्दी को प्रतिष्ठापित करने के लिये रुदन करते रहेंगे लेकिन कर कुछ नहीं पायेंगे। सच में हिन्दी के प्रति आपके मन में सम्मान है तो संकल्प लें कि हम अंग्रेजी स्कूलों को हतोत्साहित करेंगे। जब यह संकल्प अभियान में बदल जायेगा तो कोई ताकत नहीं कि हिन्दी को भारत क्या, संसार की भाषा बनने से रोक सके।