हंस के सालाना गोष्ठी पर दिलीप खान की एक टिप्पणी :
दिलीप खान : हालांकि रसरंजन के बजाहिर घंटे भर के पूर्वाभ्यास के बाद भीतर, ऐवाने-ग़ालिब में, लोग भीतर पसरकर बैठ गए, ये देखने को कि जो नाम बैनर पर छपे हैं वो सब मौजूद हैं कि नहीं…क्योंकि अरुंधति रॉय और वरवर राव कहीं नजर नहीं आ रहे थे। हालांकि राजेन्द्र यादव अंतिम क्षणों तक माइक थामकर लोगों को ये भरोसा दिलाते रहे कि तसलीमा नसरीन उनके एक पुलिस कमीश्नर मित्र के हस्तक्षेप से सुरक्षा मोर्चा तोड़कर वहां आएंगी और वरवर राव 5.30 तक आने को बोले थे…सो लोग इंतजार कर सकते हैं, लेकिन उनको नहीं आना था, सो नहीं आए।
बैनर पर छपे अरुंधति रॉय के नाम की चर्चा तक यादव जी ने नहीं की..हालांकि दबे-दबे पूरे परिसर में ये बात सबके कानों तक पसर गई कि उनसे बिना सहमति लिए उनका नाम लिख दिया गया था। अगला-पिछला अनुभव सहित हंस वाले कार्यक्रम में ये बात लगभग तय हो गई है लोगों ने मुद्दे पर बात सुनने के लिए आना छोड़ दिया है…रसरंजन सबसे बड़ा कारण है यहां आने का। यानी मेल-मिलाप। ओह..कैसे हो, बड़े दिनों के बाद दिखे। वगैरह। और जो लोग अभी भी ‘विषय और मुद्दे’ पर बात सुनने की आकुलता में यहां आते हैं वो शायद अगली बार से आना छोड़ दें।
अजय नावरिया पिछली बार की तरह फिर संचालक थे…और लगता है कि जे एस मिल की ‘ऑन लिबर्टी’ पूरी या फिर उसका कुछ हिस्सा पढ़कर आए थे कि बात करते ही दनादन तीन बार कोट करके ठोक दिया दर्शकों के सामने। ‘धवलकेसी’ (इस शब्द के बग़ैर अशोक वाजपेयी अपनी बात किसी सभा में कंप्लीट नहीं कर पाते हैं) अशोक वाजपेयी की बोलने की शैली अच्छी है और इसी शैली का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने ‘चतुर-सुजान’ लोगों के सामने साधारण और सुनी-सुनाई बात को दोहरा भर दिया।
बाकी गोविंदाचार्य ने प्रेमचंद पर कम अपने गुरु किसी मोहन तिवारी (यही नाम था शायद) पर लंबा चौड़ा बोलकर ऐसा एहसास दिलाया कि 31 जुलाई शायद उन्हीं के लिए याद करने की तारीख़ हो। हां, हंस ने एक अच्छी बात ये की कि पहले आओ-पहले पाओ की तर्ज को बदलकर इस बार उपहार-भेंट को पहले जाओ-पहले पाओ में तब्दील कर दिया। यानी आते ही आपको उपहार नहीं मिलेगा कि आप आए, उपहार समेटे और चलते बने। इसके लिए आपको सुनना पड़ेगा। समझे!!
(फेसबुक से साभार)
अकबर रिज़वी की टिप्पणी :
Akbar Rizvi : हंस द्वारा आयोजित ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’ जलसा में दो अतिथियों के न आने और एक के आते-आते रह जाने के बावजूद ख़ूब मज़ा आया। जिस रहस्यमयी पहेली ने हमें एक दशक से परेशान कर रखा था, उसका हल आज आदरणीय गोविंदाचार्य जी ने सहज ही दे दिया। गोविंदाचार्य जी ने बताया कि उनके प्रिय गुरू कम्युनिस्ट थे और वह अपने गुरू के प्रिय शिष्य थे। अशोक वाजपेयी जी को हम अब तक कवि ही समझते आए थे, लेकिन आज उनके एक और व्यक्तित्व ने प्रभावित किया। उन्होंने शुद्ध हास्य और कभी-कभी व्यंग्य के रस में ऐसा भिंगाया कि पूछिए मत…। सबसे बढ़िया रहा गिफ्ट। दुल्हन की तरह सजी सुंदर और सुशील किताब लेकर आए हैं। किसी ऐसे-वैसे का कार्यक्रम नहीं था, हंस का था… हंस का। समझे कि नहीं?