मनोज कुमार
बिटिया हो जाना ही किसी बेटी का धर्म है. बिटिया का एक ही धर्म होता है बिटिया हो जाना. बिटिया का विभिन्न धर्म नहीं होता, उसकी कोई जात या वर्ग भी नहीं होता, वह एक मायने में अमीर या गरीब भी नहीं होती है. बिटिया, सिर्फ और सिर्फ बिटिया ही होती है. हिन्दू परिवारों में पैदा हुई बेटियों को भी पराया होना होता है तो मुस्लिम, सिक्ख और इसाई परिवार भी इसी परम्परा का निर्वाह करते हैं. बेटियों को लेकर इनमें से किसी का भी धर्म और वर्ग का चरित्र अलग नहीं है. बिटिया को लेकर सबकी दृष्टि एक सी है और वह दृष्टि है बिटिया पराया धन है. यहां तक कि बिटिया को लेकर आलीशान कोठी में रहने वाले धन्ना सेठ जो सोचता है, वही सोच एक आम आदमी के मन की भी होती है. संसार के निर्माण के साथ ही बेटी चीख रही है, चिल्ला रही है कि वह एक वस्तु नहीं है. वह धन भी नहीं है और न ही सम्पत्ति लेकिन परम्परा के खूंटे से बंधी बिटिया एक सोची-समझी साजिश के तहत पराया धन बना दी गई.
अभी रेल का सफर करते समय इस बात का अनुभव हुआ कि बिटिया का कोई धर्म नहीं होता है. मैंने 14 घंटे के सफर में इस बात की तलाश करता रहा कि किसी एक बिटिया का तो धर्म पता चल सके लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. बिटिया को पराये घर जाना है तो उसे घर का हर काम सीखना होगा, भाई और पिता को खिलाने के बाद खाना ही उसका धर्म है. पिता और भाई के खाने के बाद बचा हुआ वह खाना खाती है और कई बार तो उनके हिस्से के बचे और बासी खाना बिटिया के नसीब में आता है. पीहर से सीखा और ससुराल में यह उसकी नियती बन जाती है. परदे में रहना, चुप रहना और दूसरों की खुशी में हंसना-मुस्कराने वाली बिटिया सुघड़ है, संस्कारी है. इस संस्कारी और एक धर्म का निर्वाह करने वाली बिटिया का जज्बात दहेज के लिये जला देने वालों के लिये कोई मोल नहीं रखता है, यह भी दिल दुखा देने वाली बात है कि एक बलात्कारी बिटिया का धर्म नहीं पूछता. उसके लिये उसका शरीर ही धर्म होता है. हां, इतना जरूर होता है कि सियासी फायदे के लिये कभी-कभार बलात्कार की शिकार बिटिया की जाती चिन्हित की जाती है. यह चिनहारी भी उस लाभ के लिये कि यह दिखाया जा सके कि दुष्कर्म की शिकार बिटिया भी किसी धर्म से आती है. संसार भर में बिटिया के लिये एक ही धर्म है कि उसका बिटिया हो जाना.
बिटिया को पराया कहने पर मुझे आपत्ति है लेकिन उसे धन कहने पर थोड़ी कम आपत्ति क्योंकि बिटिया का तो कोई मोल है लेकिन बेटों का क्या करें? बेटों का तो अपना धर्म है, वह अमीर भी है और गरीब भी. उसके साथ वर्ग और वह जाति के जंजाल में भी उलझा हुआ है. हिन्दू धर्म के लिये बेटा होने का अर्थ घर का चिराग है तो मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई भी इसी तरह सोचते हैं. बेटा उनके वंश को बढ़ाता है इसलिये वह पराया नहीं होता है लेकिन उसे कभी पराया न सही, स्वयं के घर का धन भी कहला नहीं पाया. बेटा न तो पराया होता है और न कभी धन बन पाया. ऐसा क्यों नहीं होता, इस पर भी जब मैंने सोचा तो लगा कि बेटे की हैसियत दिखती तो बड़ी है लेकिन हकीकत में उसकी औकात दो कौड़ी की होती है. जीवन भर वह पराये धन की खाता है. इस बारे में हमारे एक मित्रवत रिश्तेदार भाई अवधेश कहते हंै कि आप तो अधिकतम 25 साल में बरी हो जाएंगे, शायद इससे ज्यादा एक या दो वर्ष में. बिटिया का हाथ पीला करेंगे और निश्चिंत हो जाएंगे लेकिन हमारे लिये तो बेटा जीवन भर की घंटी की बना हुआ है. पहले पालो, शिक्षा दिलाओ, फिर नौकरी की चिंता करो और बाद में बेटे का ब्याह करो. थोड़े साल बाद मां-बाप पराये हो जाते हैं. मां-बाप समाज के नियमों के चलते बिटिया को पराया कर देते हैं और बेटा मां-बाप को अपने लिये पराया कर देता है. तमाम विकास की बातों, महिलाओं की हिस्सेदारी की बाते और जाने क्या क्या जतन किये गये लेकिन जब परिणाम जांचा गया तो पाया कि जतन तो बिटिया के नाम पर था लेकिन फैसला बेटे के पक्ष में हो गया. न तो इन 14 घंटों के सफर में मैं बिटिया का धर्म तलाश कर पाया और न इस पचास साल की उम्र में बिटिया को उसकी पहचान दिला पाया. जो लोग इसे पढ़ रहे होंगे तो उनसे मेरा आग्रह यही होगा कि जब समय मिले तो बिटिया के हक की तलाश करें, मदद करें और हो सके तो बिटियाओं के लिये उनका अपना धर्म तलाश कर सकें जहां वे स्वतंत्र हों, उनकी अपनी पहचान हो.