नदीम एस.अख्तर
महेंद्र सिंह धोनी का संन्यास यूं ही नहीं था. स्वतःस्फूर्त भी नहीं था ये. कौन सी लॉबी काम कर रही थी, कौन घेरेबंदी कर रहा था, कौन दबाव बना रहा था, ये सब देर-सबेर पता चल ही जाएगा. लेकिन जिस व्यक्ति ने भारतीय क्रिकेट को बुलंदियों पर पहुंचाया, जो भारत का अब तक सबसे सफल कप्तान रहा, वो ऐसी विदाई का हकदार नहीं था, कभी नहीं था.
दुखद नहीं, ये देश का दुर्भाग्य है. हम अपने हीरो की इज्जत करना नहीं जानते. कतई नहीं जानते. जो धोनी को जानते हैं, वे ये भी जानते हैं कि रांची का यह छोरा, छोटे शहर से निकला ये हीरा कितना इमोशनल है. उसके लिए भावनाएं महत्वपूर्ण है, बाकी सब तो आता-जाता रहता है. तो धोनी कहां और क्यों आहत हुए, ये क्रिकेट के पुरोधाओं का जानना-समझना होगा.
माही की आकस्मिक विदाई भारतीय क्रिकेट का हृदयाघात है. -बूढ़े- दिल को हटाकर -जवान- दिल लगाया गया है लेकिन ये जवां दिल फिलहाल तो क्रिकेट के अलावा किसी और के लिए भी धड़क रहा है, ऐसा सुना जाता है. जो भी हो, धोनी की ऐसी अपमानजनक विदाई हमें सालती है. और ये पैगाम भी देती है कि ये देश और इसके कर्णधार अपने हीरो को, अपने हीरे को, संभालकर रखना नहीं जानते. ये बरबस नहीं है कि कोहिनूर हमसे छीन लिया गया था. इतिहास से भी कभी हमने सबक नहीं सीखा.
धोनी और उनके जैसे दूसरे हीरो जब अपमान का दंश झेलते हैं और मुस्कुराकर चुप रह जाते हैं तो इसका मतलब ये नहीं कि उन्होंने हमें माफ कर दिया. इसका मतलब ये होता है कि वो हमारी इज्जत बचा रहे होते हैं, हमारी खाल का ख्याल रख रहे होते हैं. लेकिन क्या करें, हमारी खाल इतनी मोटी है कि इस पर ऐसी घटनाओं का कोई असर नहीं होता. पर ऐसी घटनाओं का एक downside effect जरूर होता है, जिसे शायद हम देखकर भी नजरअंदाज कर देना चाहते हैं. अपने सीनियर्स और रोल मॉडल का ऐसा हाल देखकर पंक्ति में खड़े बाकी लोग देश के बारे में कम, और अपने बारे में ज्यादा सोचना शुरु कर देते हैं. और जानते हैं, जब ऐसा होता है तो शुरुआत होती है पतन की.
धोनी का मामला अकेला नहीं है. हमारे राष्ट्र के जीवन काल में ऐसे कई हीरो रहे या हैं, जिन्हें देश में उनका उचित मान-सम्मान नहीं मिल पाया. अनेकानेक-अन्यान्य कारणों से. और वहां की जड़ें हिलनी शुरु हो गई हैं. अभी हमें वह नहीं दिख रहा क्योंकि फिलहाल हम लोग अच्छे दिनों की घुट्टी पीकर नॉलेज-पावर इकोनॉमी के खुमार में डूबे हैं. लेकिन जिस दिन नशा उतरेगा, बहुत कुछ हाथ से निकल चुका होगा. और इसे संभालने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार और संस्थाओं की नहीं है, ये जिम्मेदारी हमारी और आपकी भी है. फिलहाल तो सरकार ने अपनी जिम्मेदारी चुनाव जीतने तक सीमित कर रखी है, संस्थाओं की जिम्मेदारी अपना अस्तित्व बचाए रखने तक महदूद है और हमारी-आपकी जिम्मेदारी वोट देने के बाद खत्म हो जाती है. है कि नहीं ??!!!
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