निर्मल रानी
सात फरवरी को दिल्ली की जनता भारतीय लोकतंत्र में एक नया अध्याय जोडऩे जा रही है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में इस बार कुल आठ राजनैतिक दल चुनाव मैदान में हैं। इन सभी दलों के 673 उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला दिल्ली के एक करोड़ 33 लाख मतदाताओं द्वारा किया जाना है। परंतु मुख्य मुकाबला मात्र दो वर्ष पूर्व गठित एक नए-नवेले राजनैतिक दल आम आदमी पार्टी तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा नियंत्रित हिंदुत्ववादी राजनैतिक दल भारतीय जनता पार्टी के मध्य है । गत् वर्ष दिल्ली में हुए विधानसभा चुनावों में जिस समय भारतीय जनता पार्टी ने 32 सीटें प्राप्त की थीं उस समय केंद्र में कांग्रेस पार्टी के नेतृतव में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार सत्ता में थी। परंतु आज परिस्थितियां भिन्न हैं। गत् 8 महीने से केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार सत्ता में है और दिल्ली की जनता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 8 महीने के शासनकाल की उपलब्धियों,उसकी वादािखलािफयों,8 महीनों के दौरान देश में मची सामाजिक उथल-पुथल तथा इसकी कमियों व ज़्यादतियों को भी ध्यान में रखते हुए दिल्ली की नई सरकार चुनने जा रही है। दिल्ली के मतदाताओं को इस चुनाव में इस बात का फैसला भी करना है कि गत् वर्ष अरविंद केजरीवाल का 49 दिनों का शासन दिल्लीवासियों के लिए कैसा शासन था। साथ में दिल्ली के मतदाताओं को इसी चुनाव में यह भी बताना है कि केजरीवाल ने मात्र 49 दिनों बाद अपनी सरकार का त्यागपत्र देकर ठीक किया या गलत? मतदाताओं को यह भी तय करना है कि जनलोकपाल के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री के पद व सत्ता सुख को ठुकरा देने वाले अरविंद केजरीवाल पुन:दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें चाहिए या फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी की चाहत के लिए जनलोकपाल जैसे मुद्दे को छोडक़र राजनीति में पदार्पण करने वाली किरण बेदी?
हालांकि सात फरवरी को दिल्ली की सत्ता का फैसला दिल्लीवासियों द्वारा कर दिया जाएगा। और दस फरवरी को देश के लोकतंत्र में एक नया अध्याय जुड़ जाएगा। नतीजा कुछ भी हो परंतु आज़ादी से लेकर अब तक के सभी संसदीय व विधानसभाई चुनावों में दिल्ली के इस चुनाव को अब तक का सबसे रोचक चुनाव माना जा रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि गत् वर्ष कांग्रेस पार्टी की घोर नाकामियों,यूपीए के शासनकाल में हुए बड़े से बड़े कई घोटालों व भ्रष्टाचार के परिणामस्वरूप कांग्रेस से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्ता छीनने वाली भारतीय जनता पार्टी के नेता नरेंद्र मोदी को भाजपाई देश के एक ऐसे नेता के रूप में देश व दुनिया के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं गोया भारतीय राजनीति में उनका कोई विकल्प ही न हो। पिछले लोकसभा चुनावों में उन्होंने अपने लच्छेदार भाषणों के द्वारा भारतीय मतदाताओं को अपने पक्ष में करने का एक सफल प्रयास किया। हालांकि उनकी जनसभाओं की सफलता के पीछे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की एक सधी हुए रणनीति काम कर रही थी। वे जहां भी जाते थे सभा में पहले से ही चारों ओर सुनियोजित ढंग से खड़े किए गए संघ व भाजपा के कार्यकर्ता एक स्वर में मोदी-मोदी के नारे लगाने लगते थे। गोया मोदी को स्थापित करने के लिए बाकायदा एक वातावरण तैयार किया गया था। बेशक रणनीतिकारों की यह रणनीति लोकसभा चुनावों में सफल रही। क्योंकि जनता को बहरहाल राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के मुकाबले में कोई दूसरा मज़बूत विकल्प चाहिए था।
दिल्ली चुनाव के परिपेक्ष्य में यदि संगठनात्मक दृष्टिकोण से देखा जाए तो धन, बल, कार्यकर्ता, सत्ता, तिकड़मबाज़ी, नेटवर्क, विज्ञापन, मीडिया,धनाढृय व कारपोरेट लोगों से मिलने वाला सहयोग आदि किसी भी स्तर पर भाजपा की ‘आप’ से कोई तुलना नहीं है। यहां तक कि ‘आप’ के पास उतने नेता भी नहीं जितने कि भाजपा के पास हैं? परंतु इसके बावजूद भाजपा ने जिस स्तर पर आम आदमी पार्टी से चुनावी मुकाबला किया है उससे तो ऐसा प्रतीत होने लगा है कि कांग्रेस जैसे देश के सबसे पुराने राजनैतिक दल को कहीं पीछे छोडक़र आम आदमी पार्टी भारतीय जनता पार्टी से दो-दो हाथ कर रही है। दिल्ली चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने न केवल अरबों रुपये विज्ञापनों पर खर्च कर दिए हैं बल्कि अपने मुख्यमंत्रियों,दर्जनों केंद्रीय मंत्रियों,सैकड़ों सांसदों,भाजपा शासित राज्यों के कई मंत्रियों व संघ के स्वयंसेवकों की पूरी टीम दिल्ली चुनाव मेंं झोंक दी है। और जब इतनी बड़ी शक्ति लगाने के बाद भी देश के अधिकाश टीवी चैनल तथा सर्वेक्षण करने वाले संगठनों ने अपने-अपने सर्वेक्षण में आम आदमी पार्टी को ही बढ़त बनाते दिखाया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं चुनाव प्रचार की कमान अपने हाथों में संभालते हुए दिल्ली में चार चुनाव सभाएं कर डालीं। रिपोर्टस के अनुसार प्रधानमंत्री की चारों सभाएं अपेक्षित रूप से उतनी भीड़ नहीं जुटा सकीं जितनी कि भाजपा को उम्मीद थी। मोदी की जनसभा में मोदी-मोदी चिल्लाकर लोगों में उत्साह पैदा करने वाला वह फार्मूला भी उतना सफल नहीं हो सकता जितना कि लोकसभा चुनाव के दौरान देखा जा रहा था। यहां तक कि स्वयं नरेंद्र मोदी के भाषण देने के समय उनके चेहरे की आभा व हाव-भाव भी साफ दर्शा रहे थे कि उनका आत्मविश्वास अब दम तोड़ रहा है।
बहरहाल, नरेंद्र मोदी ने अपने विश्वासपपात्र अध्यक्ष अमितशाह के साथ चुनाव प्रचार की कमान संभालकर दिल्ली चुनाव को मोदी बनाम केजरीवाल बना दिया है। यदि दस फरवरी को दिल्ली के चुनाव परिणाम भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में निकलते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य इसलिए नहीं होगा क्योंकि भाजपा इससे अधिक शक्ति के साथ न तो पहले कभी कोई चुनाव लड़ी है और संभवत: भविष्य में भी नहीं लड़ सकती। परंतु यदि भाजपा के सभी संसाधनों पर दिल्ली की जनता ने पानी फेर दिया और भाजपा के सभी हथकंडों व आरोपों को दरकिनार करते हुए प्राप्त सर्वेक्षण रिपोर्टस के अनुसार अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में ‘आप’ को बहुमत से जिता दिया तो उस स्थिति में देश की भावी राजनीति क्या रुख अिख्यार करेगी? क्या उत्तर प्रदेश,बिहार और बंगाल जैसे बड़े राज्यों की विधानसभा में भाजपा द्वारा अपनी पताका फहराने के इरादों पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा? मोदी का कथित विजय रथ क्या दिल्ली पहुंचने के बाद अब अपनी वापसी का रुख करेगा? क्या देश को कांग्रेस के स्थान पर एक दूसरा धर्मनिरपेक्ष तथा ईमानदार राजनैतिक दल कांग्रेस के विकल्प के रूप में मिल जाएगा? क्या देश की जनता को आम आदमी पार्टी में वह उम्मीदें दिखाई दे रही हैं जो देश की आज़ादी के लिए मर-मिटने वाले स्वतंत्रता सेनानियों ने लगा रखी थीं?
दरअसल दिल्ली चुनाव में भारतीय जनता पार्टी किरण बेदी को अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतार कर यह संदेश देना चाहती थी कि यह मुकाबला अब स्वयं को ईमानदार बताने वाले दो नेताओं के बीच है। परंतु किरण बेदी के मैदान में आते ही भारतीय जनता पार्टी के खेमे में जिस भीतरी बगावत ने रंग पकडऩा शुरु किया उससे भाजपा को किरण बेदी के प्रयोग की चाल उलटी पड़ी। इसके बाद शाजि़या इल्मी व और कई दूसरे ‘आप’ के नेताओं को अपने पाले में शामिल कर यहां तक कि कांग्रेस की कृष्णा तीरथ को अपने साथ जोडक़र भाजपा ने दिल्ली में अपनी स्थिति मज़बूत करने की रणनीति बनाई। यह सभी चालें भी भाजपा के लिए मंहगी साबित हुईं। अब भाजपा के यहां तक कि संघ के भी पुराने कार्यकर्ता यही सवाल कर रहे हैं कि उन्होंने क्या दशकों तक संघ व पार्टी की सेवा इसीलिए की थी कि आने वाले समय में उन्हें कृष्णा तीरथ,किरण बेदी तथा दूसरे नवांगतुक पार्टी उम्मीदवारों के लिए वोट मांगते फिरना पड़े? और जब भाजपा के शाीर्ष रणनीतिकार नरेंद्र मोदी व अमित शााह ने अपने कार्यकर्ताओं के इस रुख को भांप लिया तभी चुनाव की कमान उन्हें अपने हाथों में लेनी पड़ी।
परंतु मोदी बनाम केजरीवाल बन चुकी लड़ाई में भी दिल्ली की जनता अब निश्चित रूप से यह देखेगी कि वह दस लाख रुपये का सूट पहनने वाले देश के कथित प्रधानसेवक के पक्ष में मतदान करे अथवा सौ रुपये का मफलर गले में डालने वाले एक साधारण नेता को चुने? दिल्ली की जनता एक ऐसे व्यक्ति के कहने पर मतदान करे जिसने अपने मुख्यमंत्री व प्रधानमंत्री बनने के लिए किन-किन तिकड़मबाजि़यों का सहारा नहीं लिया,अपने किन-किन वरिष्ठ साथियों व नेताओं के साथ धोखा नहीं किया? या फिर ऐसे व्यक्ति के पक्ष में मतदान करे जो दिल्ली का मुख्यमंत्री होने के बावजूद दिल्ली की जनता की समस्याओं के लिए सारी रात चार डिग्री तापमान में चार दिन तक दिल्ली की फुटपाथ पर खुले आसमान के नीचे धरने पर बैठा रहा? दिल्ली की जनता एक विनम्र,सज्जन तथा शिक्षित व ईमानदार व्यक्ति के पक्ष में चुनाव करे अथवा किसी फैशनपरस्त, अहंकारी तथा अभिनय करने वाले आत्ममुग्ध व्यक्ति के नेतृत्व के पक्ष में मतदान करे? दिल्ली के मतदाता यह भी सोचेंगे कि वे आम आदमी की समस्याओं व दुख-दर्द,गरीबी तथा मंहगाई को दिल की गहराईयों से समझने वाले किसी नेता के पक्ष में मतदान करें अथवा कारपोरेट घराने के हितैषी उद्योगपतियों का हित साधने वाले नेता के पक्ष में मतदान करें। निश्चित रूप से दिल्ली के मतदाता यह भी सोचेंगे कि वे गत् वर्ष दिल्ली की 49 दिन की सरकार के दौरान निभाई गई सरकार की कारगुज़ारियों को ध्यान में रखकर मतदान करेें अथवा गत् 8 महीने की केंद्र सरकार की लफ्फाज़ी या उसके झूठे वादों के हक में अपना वोट दें? जो भी हो मोदी बनाम केजरीवाल बन चुका दिल्ली का चुनाव भारतीय राजनीति के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ साबित होगा।