दिल्ली चुनाव 2015: आप की संभावनाएँ……….

पीएम मोदी के नाम पर पूर्व सीएम केजरीवाल मांग रहे हैं वोट
पीएम मोदी के नाम पर पूर्व सीएम केजरीवाल मांग रहे हैं वोट

विशाल शुक्ला

भारतीय राजनीति में अचानक ही आये बदलाव के ने एक नयी बहस को जन्म दे दिया है। अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की पिछली दिल्ली विधानसभा चुनावों में आशातीत सफलता ने राजनीति के प्रकांड विद्वानों को भी आत्मविशलेषण करने पर विवश कर दिया था। काऱण सीधा सा था, अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह से से वर्षो से भ्रष्ट राजनीति और मक्कार नौकरशाही के सताये आमजन के गुस्से को जो आवाज दी है, वह स्वंय में अभूतपूर्व थी, लेकिन पिछले कुछ समय से, विशेषकर दिल्ली में आप की सरकार के गठन के बाद अरविंद और उनकी पार्टी को कुछ समस्यायों का सामना भी करना पड़ा। उन पर लगातार सस्ती और लुभावनी राजनीति करने के आरोप लगते रहे और उनकी पार्टी के कुछ ‘चेहरों’ पर भी लगातार सवाल उठाए गए,जिनमें कानून मंत्री ‘सोमनाथ भारती” जैसे उनकी पार्टी के नेताओं पर नस्लभेदी बर्ताव और अफ्रीकी मूल की महिलाओं से दुर्व्यव्यवहार करने के आरोप भी लगे, हाँलाकि अधिकांश समय तक उपलब्ध सबूतों के आधार पर ये आरोप निराधार प्रतीत होते रहे,परंतु न्यायिक जाँच जारी रहने तक ‘आप’ ने भी भारती को क्लीनचिट नही दी थी।

भारती के मामले में तीन पुलिसकमिर्यों के निलंबन की माँग को लेकर धरने पर बैठने वाले केजरीवाल के इस कदम की कई लोगों ने आलोचना की, यहाँ तक की उनके हर कदम का समर्थन का करने वाले ‘आम आदमी’ भी उनसे असहमत दिखा। यही कारण था, कि चेहरा बचाने की कोशिश में केजरीवाल को लगभग समझौते के अंदाज में अपना धरना समाप्त करना पड़ा था। भले ही केजरीवाल ने अपना धरना नेक नियति से किया हो, पर उनके संवैधानिक पद रहते हुए इस तरह के बर्ताव को ‘नुक्कड़ राजनीति’ का नाम भी दिया गया। इसके बाद केजरीवाल के 49 दिनों में ही सत्ता छोड़ देने और लोकसभा चुनाव लड़ने के निर्णय ने उनकी ‘आम आदमी’ के बीच अधिक किरकिरी कराई। इसके बाद लोकसभा चुनावों में खराब प्रदर्शन ने रही सही कसर भी पूरी कर दी, इसके बाद अपनी-2 नौकरियाँ और पढ़ाई छोड़कर ‘राजनीतिक बदलाव’ के लिए पार्टी से जुड़े लोगों को गहरा धक्का लगा और बड़े पैमाने पर लोगों ने पार्टी छोड़ी।

लेकिन अगर पिछले एक वर्ष के इस पूरे घटनाक्रम को मौजूदा दिल्ली विधानसभा चुनावों के संदर्भ में देखें तो, यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इन चुनावों में न तो मोदी का जादू चलने वाला है और न ही अरविंद का, इन चुनावों में उम्मीदवार और पार्टी के संसाधन से ही चुनाव जीता जाएगा. यूँ तो भारतीय राजनीति में नुक्कड़ राजनीति का कानसेप्ट नया नही है,भारतीय राजनीति में राजनरायण, जयप्रकाश नारायण(जे.पी.)से लेकर अन्ना हजारे की अगस्त क्रांति तक नुक्कड़ राजनिति का एक समृद्ध इतिहास रहा है। लेकिन यह भी सच है कि नुक्कड़ राजनीति शायद ही पहले इस शिखर पर पहुँची हो। अत: हम कह सकते हैं कि एक बार फिर ‘आप’ पर सभी की निगाहें हैं, और उम्मीदों का भार भी ,एसे में देश की राजनीति में हुई बदलाव की इस सकारात्मक शुरुआत को उसके अंजाम तक पहुंचाने के लिए अरविंद और उनकी पार्टी को सतर्कता से आगे वढ़ना होगा। अंत में बसीम बरेलबी का एक शेर और बात खत्म

“कौन सी बात, कब -कहां कही जाती ही, यह सलीका हो तो हर बात,सुनी जाती है।

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