अभिषेक श्रीवास्तव : दर्शक की नज़र से
क्या किसी ने इधर बीच पब्लिक स्पेस में अचानक आए मौखिक/भाषायी/नैतिक स्खलन के मौन सेलिब्रेशन/सहमति पर ध्यान दिया है?
अभी इंडिया न्यूज़ चैनल पर एक वकील ने दीपक चौरसिया से ऑन एयर कहा कि तुम तो मुझसे बिना मतलब नाराज़ हो, ऐसा है किसी शाम आओ बैठते हैं।
अवधेश कुमार ने एक कदम आगे बढ़ कर बताया कि कैसे जंतर-मंतर पर आसाराम के पक्ष में बोलने पर उन्हें 3100 रुपये का लिफाफा थमाया गया।
अंत कुछ यों हुआ कि चौरसिया ने अवधेश से पूछ डाला कि क्या आप भी आसाराम की तरह बिना विकेट लगाए बैटिंग करते हैं।
इस परिचर्चा में महिलाएं भी थीं।
आप समझ रहे हैं कि ये क्या हो रहा है? मतलब, ये हो क्या रहा है?
Ankit Muttrija
आठ-आठ खिड़कियां खोलकर पैनल सजता हैं इनका।यक़ीन जानिए पैनल में हिस्से ले रहें लोगों और एंकर का चेहरा जाना-पहचाना ना हों तो दर्शक समझ ही नहीं सकेंगे कि कौन एंकर हैं।फिर दीपक चौरसिया तो वैसे भी कहीं से भी पैनल में शामिल हो जाते हैं।कुल मिलाकर कम से कम आठ लोगों में इनकी आवाज़ शोर-शराबे में दर्ज तो होती हैं बाकि तो बस कैमरा से मालूम पड़ते हैं कि अच्छा ये भी हैं।
Ashish Maharishi
दीपक चौरसिया से आपको अभी भी उम्मीद बची है क्या अभिषेक भाई ?
Sushant Jha
There should be appropirate laws to check such contents. But who cares and who will lodge complaints..?
Kavita Krishnapallavi
‘वर्चुअल स्पेस’ में नैतिक अध:पतन की अभिव्यक्तियाँ ‘रीयल स्पेस’ में समाज के मुखर तबके — बौद्धिक जमात के नैतिक अध:पतन का परावर्तन है। ये सभी खाये-अघाये, विलासी, आवारा लोग हैं जो पूँजी के चाकर और भाड़े के भोपू हैं। इनकी ”प्रगतिशीलता” भी अपना बाज़ार भाव बढ़ाने का हथकण्डा है। बुर्ज़ुआ वर्चस्व की राजनीति ”सहमति” का निर्माण करने के साथ ही व्यवस्था के दायरे के भीतर ”असहमति” का भी निर्माण करती है।
(स्रोत-एफबी)