आप अपना इस्तीफा खुद लिख कर मेल के जरिए देंगे या फिर मैनेजमेंट ने आपके लिए जो इस्तीफा पहले से तैयार किया हुआ है, उस पर हस्ताक्षर करेंगे? ‘आजादी का जश्न’ पर दर्जनों पैकेज और विशेष रपट बनाने वाले नेटवर्क-18 के तीन सौ से ज्यादा मीडियाकर्मियों को सोलह अगस्त के दिन यही दो विकल्प दिए गए थे। वैसे तो इसके चैनलों ने मंदी की मार पर विशेष रपट प्रसारित करते हुए सोलह अगस्त को ‘काला शुक्रवार’ और ‘ब्लड बाथ डे’ जरूर कहा, लेकिन अपने संस्थान के बारे में एक पंक्ति की खबर नहीं दी, जो कि स्वाभाविक ही है!
संस्थान की ओर से किसी भी तरह के आधिकारिक बयान न दिए जाने के बावजूद मीडियाकर्मियों के बीच यह बात प्रसारित होती रही कि ऐसा घाटे की भरपाई, खर्च में कटौती और आने वाले समय में अंग्रेजी, हिंदी और बिजनेस चैनल के अलग-अलग काम के लिए रखे गए मीडियाकर्मियों के बजाय एक ही से सबके लिए काम लेने की योजना है। इसका मतलब है कि अभी तक अगर एक खबर या कार्यक्रम के लिए सीएनएन आइबीएन, आइबीएन 7 और सीएनबीसी आवाज के लिए अलग- अलग रिपोर्टर-प्रोड्यूसर लगाए जाते रहे हैं, तो अब उसकी जरूरत नहीं है। ऐसा होने से समूह के भीतर काम के स्तर पर हिंदी-अंग्रेजी और बिजनेस चैनल का विभाजन खत्म हो जाएगा। इधर मुख्यधारा मीडिया की गहरी चुप्पी के बीच नेटवर्क-18 के इस रवैए को लेकर सोशल मीडिया पर चर्चाएं छिड़ीं और कुछ इस तरह जोर पकड़ा कि वर्चुअल स्पेस का प्रतिरोध नोएडा फिल्म सिटी में सीएनएन आइबीएन कार्यालय के आगे धरना-प्रदर्शन के रूप में तब्दील हो गया। उसमें इस मामले को इस तरह भी देखने की कोशिश की गई कि ऐसा करने के पीछे नरेंद्र मोदी के पक्ष में माहौल बनाने का राजनीतिक एजेंडा हो। ऐसा इसलिए कि मुकेश अंबानी का नरेंद्र मोदी को खुला समर्थन मिलता रहा है और उनकी कंपनी ने इस समूह में करीब सोलह सौ करोड़ रुपए निवेश किए हैं। बहरहाल, इस कयास में कितना दम है, इसे नेटवर्क-18 समूह की ओर से प्रसारित सामग्री और खबरों को लेकर संपादकीय रवैए के विश्लेषण से जोड़ कर समझना श्रमसाध्य काम है।
सोलह अगस्त को नेटवर्क-18 में भारी पैमाने पर जो छंटनी हुई, उसका मजमून पिछले साल ही तैयार किया जा चुका था। करीब पांच सौ करोड़ रुपए के कर्ज में डूबी, लड़खड़ाती राघव बहल की कंपनी नेटवर्क-18 ने तीन जनवरी को प्रेस विज्ञप्ति जारी कर अचानक घोषणा की कि वह कर्ज मुक्त होकर न केवल इस देश की सबसे अमीर नेटवर्क कंपनी हो गयी है, बल्कि इस बीच उसने इक्कीस सौ करोड़ रुपए से ज्यादा लगा कर इटीवी का भी अधिग्रहण कर लिया है। प्रेस विज्ञप्ति के शुरू के तीन पैरै तक यह बिल्कुल समझ नहीं आता कि यह करिश्मा कैसे हुआ, लेकिन आगे कंपनी ने विस्तार से बताया है कि उसका रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड की सहयोगी कंपनी इंफोटेल के साथ व्यावसायिक समझौता हुआ।
इन्फोटेल ब्रॉडबैंड से जुड़ी कंपनी है, जो 4-जी के जरिए अपना विस्तार पैन इंडिया कंपनी के तौर पर करेगी। आने वाले समय में इंटरनेट के जरिए लाइव टीवी की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने की स्थिति में दोनों को इसका सीधा लाभ मिलेगा। इन्फोटेल नेटवर्क-18 की सारी सामग्री का इस्तेमाल करेगी और इधर नेटवर्क-18 को इंटरनेट, मोबाइल, टीवी के बाजार में घुसने में मजबूत कंपनी का साथ मिलेगा। इन दोनों के बीच नरेंद्र मोदी के वर्चुअल स्पेस को लेकर दावे और जनाधार के आसपास देखने की कवायद को लेकर कयास और तेज होंगे। इस करार के दौरान इन दोनों कंपनियों की ओर से नेटवर्क-18 के भविष्य को लेकर जो बातें कही गर्इं, वे कम दिलचस्प नहीं हैं।
प्रेस विज्ञप्ति में कंपनी के सर्वेसर्वा राघव बहल का कहना था कि नेटवर्क-18 के लिए यह गर्व का विषय है कि हम पूरी तरह कर्जमुक्त हैं और अब पैसे की चिंता छोड़ कर हमारा पूरा ध्यान सिर्फ सामग्री के स्तर पर अपने को मजबूत करने पर है। उधर रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने अपनी ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि कंपनी को राघव बहल और उनकी टीम पर पूरा भरोसा है, इसलिए इसके साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं की जाएगी।
समूह की व्यवस्था किसी तरह बाधित न हो, इसके लिए कंपनी ने सीधे निवेश के बजाय स्वतंत्र रूप से एक ट्रस्ट का गठन करके किया है, जो कंपनी का लाभ देखते हुए उसके दबाव में नहीं होगा। इन दोनों प्रेस विज्ञप्तियों के हिसाब से देखें तो तीन सौ से ज्यादा लोगों की रातोंरात हुई छंटनी के पीछे न तो रिलायंस इंडस्ट्रीज की कोई भूमिका है और न नेटवर्क- 18 ने घाटे की भरपाई के बजाय सूचना और सामग्री संग्रह के तरीके में बदलाव के लिए ऐसा किया है। यह अलग बात है कि नेटवर्क-18 दूसरे मीडिया समूहों की तरह ही ट्राई के उस निर्देश को छंटनी का आधार बनाता जान पड़ रहा है, जिसके तहत एक घंटे में बारह मिनट से ज्यादा विज्ञापन न दिखाए जाने की बात कही गई है। इसे अक्तूबर 2012 तक हर हाल में लागू किया जाना था, मगर अब उसे दिसंबर तक टाल दिया गया है। मीडिया समूहों का तर्क है कि उनके कुल राजस्व का नब्बे फीसद विज्ञापन से आता है और अगर यह कम होता है तो भारी नुकसान का सामना करना पड़ेगा, जिसके लिए वे तैयार नहीं हैं। यह अलग बात है कि दस साल पहले बने इस बारह मिनट के प्रावधान की जम कर धज्जियां उड़ाई जाती रही हैं और इस बीच टीवी चैनलों ने विज्ञापन के वे तमाम फार्मूले और फार्मेट खड़े कर लिए हैं, जो अवधि के दायरे में नहीं आते हैं।
करार के बाद दोनों कंपनियों की प्रेस विज्ञप्ति और सोलह अगस्त को की गई छंटनी को आमने सामने रख कर देखें तो यह स्पष्ट है कि नेटवर्क-18 खुद को इन्फोटेल के लिए ‘कंटेंट प्रोवाइडर’ के रूप में बदलने की कोशिश में है। ऐसे में उसका कॉरपोरेट मीडिया संस्थान के बजाय इन्फोटेल लाइव टीवी का धंधा चमकाने के लिए डाटाबेस कॉरपोरेट कंपनी के फार्मूले पर काम करना स्वाभाविक है। संभव है कि नेटवर्क-18 अपने ढांचे को समेट कर और छोटा करे (बंगलुरु ब्यूरो खत्म करना उसी की एक कड़ी है) और मीडिया का काम डेस्क तक सिमटता चला जाए। यानी मीडिया का पुराना साइनबोर्ड लगा कर यह समूह भीतर- भीतर अपने धंधे को तेजी से बदल रहा है। इस नए धंधे में पहले के मुकाबले काम तो कम नहीं होंगे, लेकिन लोगों की जरूरत कम कर दी जाएगी। वह सामग्री और विश्लेषण के स्तर पर सिकुड़ता चला जाएगा। ऐसा होने से भाषाई अस्मिता और क्षेत्रीय पत्रकारिता का चरित्र बुरी तरह प्रभावित होंगे और इटीवी की भूमिका, जिसकी पहचान क्षेत्रीय और विविध स्तर की पत्रकारिता की रही है, डैमेज कंट्रोल से अधिक नहीं रह जाएगी। इस बीच रिलायंस इंडस्ट्रीज ने क्रॉस मीडिया ओनरशिप को लेकर संभावित झंझटों को बेहतर समझा है। हालांकि सितंबर, 2011 में सरकार ने इससे संबंधित विधेयक लाने की घोषणा की तो थोड़ी-बहुत सुगबुगाहट के बाद यह मामला थम गया। मगर इसने इस रणनीति को अभी से अपना लिया है कि आने वाले समय में एक ही उद्योग घराने का कई दूसरे धंधों के साथ मीडिया संस्थान चलाना मुश्किल हो, इसके पहले ही स्वतंत्र प्रतिष्ठान खड़ा करने से बेहतर है पहले से साख अर्जित किए मीडिया संस्थान में निवेश करना। गौर करें तो दोनों वही कर रहे हैं, जिसके लिए उन्होंने करीब डेढ़ साल पहले मसविदा तैयार किया था। मगर व्यावसायिक रणनीति की यह पूरी बहस क्रॉस मीडिया ओनरशिप के चोर दरवाजे और जो कॉरपोरेट बादशाह है, वही मीडिया मुगल भी है और संभवत: वही लोकसत्ता का निर्धारक भी, में न जाकर मीडिया की नैतिकता पर आकर टिक गई है, जो कि अप्रासंगिक है।
(मूलतः जनसत्ता में प्रकाशित)