रेंगती हुई पत्रकारिता में चौथा स्तंभ ना खोजे

अखबारो के संपादकीय पन्नो पर अगर सत्ताधारी नेता-मंत्रियो के लेख छप रहे है तो ये पत्रकार-साहित्यकार या स्वतंत्र विचारो के साथ सत्ता की नीतियों को लेकर क्रिटिकल सोच ही गायब है । यानी देश एक वैचारिक शून्यता से गुजर रहा है । न्यूज चैनलो के स्क्रिन पर जो बहस हो रही है । जिन मुद्दो के आसरे समाज को बांटा जा रहा है । जो गलत तथ्य रखे जा रहे है । या गलत तथ्यो को ही सही बताने में एडी चोटी लगायी जा रही है । या देश की हकीकत से भागती राजनीतिक सत्ता की कमजोरी को ढकने का खुला खेल जिस तरह मीडिया में समा चुका है उसके भीतर का सच कितना भयावह है इसे देश ही देख ना सके इसके लिये मीडिया बिलकुल नयी भूमिका में है ।

punya prasun vajpayee

राजनीति लोकतंत्र को हांकती है । लोकतंत्र राजनीतिक सत्ता की मंशा मुताबिक परिभाषित होती है । लोकतंत्र की चारो स्तभं लोकतंत्र को नहीं राजनीतिक सत्ता को थामते है । या फिर विरोध की राजनीति धीरे धीरे सत्ता के विकल्प के तौर पर खडा होना शुरु होती है तो लोकतंत्र को संभाले चारो स्तंभ की रीढ भी धीरे धीरे सीधी होती है । और पांच बरस बाद राजनीतिक सत्ता बदलती है तो लोकतंत्र फिर से सत्ता मुताबिक ढलना शुरु होती है । लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में सबसे अहम भूमिका लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की होती है । चौथा स्तंभ यानी मीडिया, जो ना तो टैक्स पेयर के पैसे से चलता है [ जबकि कार्यपालिका विधायिका या न्यायपालिका का पूरा खर्चा पानी टैक्स पेयर के पैसे से चलता है ] और ना सत्ता की पूंजी से उसकी साख बनती है । लोकतंत्र का अलघ जगाये रखने में मीडिया की भूमिका सबसे अहम इसलिये हो जाती है क्योकि राजनीतिक सत्ता पाने के लिये हर राजनीतिक दल को जनता के बीच ही जाना होता है । और जनता को जागरुक बनाने या सही जानकारी देने में निषपक्ष भूमिका मीडिया की होती है । एक लिहाज से जनता और सत्ता के बीच मीडिया की भूमिका लोकतंत्र को जिन्दा रखने की है । लेकिन मीडिया अगर खुद को धंधे में तब्दिल कर लें तो पूंजी का मुनाफा ही उसके लिये सर्वोपरि होगा । और मीडिया का मुनाफा अगर राजनीतिक सत्ता की हथेलियों में कैद होगा तो फिर सत्ता की अवाज ही मीडिया की कलम या न्यूज चैनलो के स्क्रिन से दिखायी-सुनायी देगी ।

लेकिन मौजूदा वक्त इन हलातो से कहीं आगे है । क्योकि लोकतंत्र की परिभाषा को ना सिर्फ सत्तानुकुल किया गया है बल्कि मीडिया की आंखो से ही लोकतंत्र की तस्वीर ये कहकर रखी जा रही है कि मीडिया स्वतंत्र है । उसके शब्द उसके अपने है । उसकी रिपोर्टिंग उसकी अपनी है । अखबारो के संपादकीय पन्नो पर अगर सत्ताधारी नेता-मंत्रियो के लेख छप रहे है तो ये पत्रकार-साहित्यकार या स्वतंत्र विचारो के साथ सत्ता की नीतियों को लेकर क्रिटिकल सोच ही गायब है । यानी देश एक वैचारिक शून्यता से गुजर रहा है । न्यूज चैनलो के स्क्रिन पर जो बहस हो रही है । जिन मुद्दो के आसरे समाज को बांटा जा रहा है । जो गलत तथ्य रखे जा रहे है । या गलत तथ्यो को ही सही बताने में एडी चोटी लगायी जा रही है । या देश की हकीकत से भागती राजनीतिक सत्ता की कमजोरी को ढकने का खुला खेल जिस तरह मीडिया में समा चुका है उसके भीतर का सच कितना भयावह है इसे देश ही देख ना सके इसके लिये मीडिया बिलकुल नयी भूमिका में है । जो परोसा जा रहा है उस दायरे का सच यही है कि देश में राजनीतिक शून्यता है । विपक्ष नहीं है । विपक्ष के पास कोई नेता नहीं है । संसद के भीतर विपक्ष की ताकत किसी भी विधेयक को पास कराने की नहीं है । और सडक पर जनता सिर्फ सत्ता की सुनती है । यानी मीडिया के भीतर कोई जगह ऐसे किसी की नहीं है जो सत्ता में नहीं है या सत्ता के साथ नहीं है । इस सोच की राजनीतिक जमीन का सच यही है कि सत्ता के अनुकुल बोल वाले मीडिया के साथ कारपोरेट रहेगा । विज्ञापन रहेगा । संस्थान रहेगें । सरकार की नीतियां बनाने वाले होगें ।
यानी ऐसे दौर में मीडिया गायब होगा जब अर्थव्यवस्था ना सिर्फ सबसे ज्यादा डांवाडोल होगी बल्कि पटरी पर लाने की सोच भी सत्ता के पास ना होगी । मीडिया तब गायब है जब 20 करोड मुसलमान के सामने आस्त्तित्व का संकट पैदा किया जा चुका है । डर और भय तले खुद को मुसलमान कहने भर से उसकी रुह कांपती होगी । मीडिया तब लापता है जब दलित समुदाय को सत्ता विरोधी वोटबैंक मान कर दबाया-कुचला जा रहा है । मीडिया तब गायब है जब किसान के सामने अपने अनाज की उचित किमत पाने का संकट है और मजदूर के पास कोई काम ही नहीं है । ऐसे वक्त मीडिया के अपनी आंख-कान बंद कर लिये है जब देश के 80 करोड लोगों को महज पांच किलो अनाज पर टिका कर पांच ट्रिलियन की इक्नामी बनाने के सपना दिखाया बताया गया । मीडिया ऐसे वक्त पत्रकारिता छोड मनोरंजन में बदला । मीडिया ऐसे वक्त ग्राउंड जीरो की रिपर्टिंग छोड कर रायसिना हिल्स पर रेगने लगा जब देश को सबसे ज्यादा संविधान की जरुरत पडी । जब सबसे ज्यादा कानून के राज के होने की जरुरत पडी । जब सबसे ज्यादा संवैधानिक संस्थानो की स्वयत्ता की जरुरत थी । जब देश को एक स्टेटसमैन की जरुरत थी जब मीडिया ने स्टेट्समैन की भी कलाकारी-अदाकरी करने वाले को ही स्टैट्समैन मान कर परोसना शुरु कर दिया । जाहिर है यह ऐसी परिस्थिति है जिसमें तर्क-विज्ञान की जरुरत नहीं पडेगी । यानी अखबार के संपादकीय पन्ने पर जो विचार हो या न्यूज चौनल के स्क्रिन पर जो चर्चा हो रही हो उसमें जितनी नाटकियता होगी । जितना मनोरंजन होगा । गुस्से का भी इजहार हो । आक्रोष भी छलके । और सारे हालात सत्ता के सच को छुपाने के लिये ही हो तो भी काम गाली गलौच से भी चल जायेगी । चिल्लाने से भी चल जायेगा । और बिलकुल नये अंदाज में राष्ट्रीयता की चादर ही न्यूज चैनल के स्क्रिन पर बिछाकर धमकी भरे अंदाज में सत्ता के खिलाफ ना जाने की चेतावनी देना ही पत्रकारिता में बदल जायेगी ।

सीमा पर तैनात चीन को लेकर कोई सवाल नहीं होगा । टीवी स्क्रिन पर ही चीन पर धराशाही कर सत्ता की ताकत बताना पत्रकारिता होगी । अमेरिकी कंपनियों का भारत में इन्वेस्ट ना करने पर सवाल नहीं होगा बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप से दोस्ती के गुण ही गाये जायेगें । भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी बांग्लादेश से से भी नीचे क्यों चली गई इसपर सवाल नहीं होगें बल्कि 2021 में जीडीपी 8 फिसदी तक पहुंच जाने का अंदेशा है इसी के ढोल पीटे जायेगें । 12 करोड प्रवासी मजदूरो के पास कोई काम क्यों नहीं है और महामारी के दौर में जिस पैकेज का एलान हुआ उसकी हालत कितनी खास्ता है , सवाल इसपर नहीं होगा बल्कि पैकेज की रकम में सत्ता की दरियादली दिखाने पर ही वक्त बीतेगा । यानी लकीर बेहद बारिक है कि जब मीडिया कुछ छुपाना चाहता है तो फिर चकाचौंध या ग्लैमर परोसने के लिये उसका ताना-बाना कैसा होगा । सिल्वर स्क्रिन के नायक सुशांत सिंह राजपूत की मौत पर सवाल होगें । कंगना के गुस्से पर चर्चा होगी । रिया चक्रवर्ती के इंटरव्यू पर बहस होगी । समूचे बालीवुड को नशाखोर बताने का अठ्ठास होगा । बालीवुड का मीडिया के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाना हो या हाथरस की बच्ची के साथ बलात्कार कर हत्या का मामाला अदालत में जा पहुंचे सबकुछ एक सरीखा होगा । एक तरह से ही अंधेरे और चकाचौंध की दुनिया को न्यूज चैनलो के स्क्रिन पर उकेरना भी संपादकीय हुनर है । जिस तरह संसद के भीतर बिना वोटिंग खेती के तीन विधेयक को पास करा लेना और किसान सडक पर आ जाये तो इसे देशहित के खिलाफ बताना ।

तो क्या ये अंधेरे को उजाला बताने का दौर है । या फिर लोकतंत्र को खत्म कर लोकतंत्र के राग गाने का दौर है । या मीडिया का ये ऐसा स्वर्णिम काल है जब चौथा स्तंभ शब्द की जरुरत नहीं । पत्रकारिता की जगह तकनीकी विस्तार ही मीडिया है । मुनाफे का गणित बहुत सीधा और साफ है । जन-सरोकार की जरुरत नहीं । राजनीतिक विचार की जरुरत नहीं । संविधान के जरीये संस्थानो के चैक एंड बैलेंस की जरुरत नहीं । सीबीआई का तोता होना भर नहीं बल्कि सीवीसी, सीएजी से लेकर चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट को भी सत्ता के दायरे में लाने का एक ऐसा अनूठा खेल जिसमें राज्यपाल मुख्यमंत्रियो को ठिकाने लगाने से नहीं चूकेगा [बंगाल और महाराष्ट्र ] और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री के निशाने पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस रमन्ना होगें । और आंध्र हाईकोर्ट मामले की जांच सीबीआई को सौप ये कहने से नहीं चूकेगा कि न्यायपालिका ढह गई तो सिस्टम ही चरमरा जायेगा । और इसी के सामानातंर चीफ जस्टिस रिटायर होने के तीन महीने के भीतर उसी संसद में चले जाते है जिस राज्यसभा में डिप्टी स्पीकर हरिवंश कभी मार्के के पत्रकार रहे लेकिन संसद पहुंचते ही जनतंत्र को मटियामेट कर खेती बिल पास कराने में नहीं हिचके । तो मीडिया क्या करे । सत्ता सुख उठाये । टर्न ओवर बढाये । कानून से बेखौफ होकर गलत रिपोर्टिंग करें । या कभी हाथरस , कभी बालीवुड , कभी चीन , कभी तब्लिगी , कभी कंगना , कभी मन की बात सुनाये । जो स्पष्ट कर दें कि लोकतंत्र अब संसद या संविधान में नहीं बल्कि संसद और संविधान के सामने नतमस्तक होकर दिखाने में ही है । ये वर्चुअल राजनीति का दौर है जो दिखायी दें उसे ही सच माने । और दिखाने वाले की मंशा पर सवाल ना उठाये क्योकि अब मंशा नहीं समझ ही यही है । ( लेखक के फेसबुक वॉल से साभार )

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