अभिषेक श्रीवास्तव –
पत्रकारों की किसी भी संस्था में केवल पत्रकार होने चाहिए। क्या इस बात से किसी को असहमति है? होनी भी नहीं चाहिए। यह सवाल थोड़ा नाजुक इसलिए हो जाता है क्योंकि पत्रकार रहते हुए भी कई लोग दूसरे धंधों में लिप्त रहते हैं। इससे हितों का टकराव पैदा होता है। आपकी विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाती है। ऐसे बहुत से लोग होंगे जिन्हें हम पूरे तौर से नहीं पहचानते, लेकिन जानकारी मिलने पर चुप रह जाएं, ऐसा नहीं कर सकते। इस बार प्रेस क्लब के चुनाव में कुछ ऐसा ही दृश्य सामने आ रहा है। प्रेस क्लब के अध्यक्ष पद पर उस ‘पत्रकार’ के लिए वोट मांगा जा रहा है जो कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय के मुताबिक कुल 12 कंपनियों का निदेशक है और एक मूल कंपनी का चेयरमैन।
बादशाह सेन उर्फ अनिकेन्द्र नाथ सेन 1994 में टाइम्स ऑफ इंडिया से दिलीप पड़गांवकर के साथ बाहर निकले थे। उसी साल इन लोगों ने मिलकर एक कंपनी बनाई। कंपनी का नाम उनकी प्रोफाइल पर जाकर देखें। चेयरमैन लिखा हुआ है। नाम से यह मीडिया कंपनी है लेकिन धंधे बहुतेरे हैं। नेपाल से लेकर मॉरीशस तक इनके कारोबारी हित हैं। जो दिलीप पडगांवकर अपने संपादक पद पर रहते हुए भारत के मीडिया में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध करते रहे, उन्हीं के साथ मिलकर सेन ने नेपाल में राजा की निकटता का लाभ उठाते हुए एफडीआइ नियमों को तोड़ा और वहां की प्रिंट इंडस्ट्री में एकाधिकार जमा लिया। सोचिए, कितने पत्रकारों की नौकरियां गई होंगी। कितने अख़बार बंद हुए होंगे।
कम कहा, ज्यादा समझना। बारह कंपनियों का निदेशक, दूसरे देश में अपने देश के पैसे से एफडीआइ ले जाने वाला, वहां के पत्रकारों की नौकरी खाने वाला आदमी कम से कम ‘पत्रकार’ का हित नहीं सोच सकता। एक जमाने में भले बादशाह साहब पत्रकार रहे हों। हम अब नहीं मानते। प्रेस क्लब के अध्यक्ष पद पर ऐसे शख्स के लिए प्रचार करने वाले जनवादी साथियों से अपील है कि एक बार फिर सोचें। समझ कर प्रचार करें। अपनी इज्जत का भी ख़याल रखें और हमारा सम्मान भी अपने प्रति बनाए रखें। सबका बुनियादी ईमान बचा रहे। और क्या चाहिए हमें।
कृपया पत्रकारों की संस्था पर कारोबारी कब्ज़ा होने से रोकें।
@fb