बजट का ‘ब’ भी नहीं आता और सारे पत्रकार बन जाते हैं अर्थशास्त्री

बजट का 'ब' भी नहीं आता और सारे पत्रकार बन जाते हैं अर्थशास्त्री

अभिषेक श्रीवास्तव

भारतीय पत्रकारिता में कुछ रूढि़यां बहुत दिलचस्‍प हैं। मसलन, बजट से दस दिन पहले आप किसी पत्रकार से बात करें, वो ज़रूर चौड़ा होकर जबरन बताएगा- भाई, मैं खाली नहीं हूं, 28 को बजट है, 26 को रेल बजट, बहुत फंसान है।

बिज़नेस अखबारों में तो बजट सालाना महाकुंभ टाइप होता है। ‘इकनॉमिक टाइम्स’ अख़बार अपना बजट इश्‍यू निकालने के बाद बाकायदे पांचसितारा होटल में रात भर बजट पार्टी मनाता है। सारे पत्रकार बजट के मौसम में इस तरह पेश आते हैं जैसे यह कोई राष्‍ट्रीय आपद्धर्म हो। यह बात अलग है कि अधिकतर लोग बजट का ‘ब’ भी नहीं समझते।

पिछले दो दशक से जो बजट आ रहे हैं, वे कुल मिलाकर माध्‍यमिक दरजे के गणित से ज्‍यादा कुछ नहीं हैं क्‍योंकि उनकी नीतिगत लाइन पहले से तय है। अमीरों को सब्सिडी देना है, गरीबों की जेब काटनी है- इस शाश्‍वत बाजार हितैशी मुहावरे के भीतर थोड़ा-बहुत दाएं-बाएं कर के बजट निकाल दिया जाता है लेकिन हमारे पत्रकार भाई इसी को फेंटने में परेशान रहते हैं। आप आज़मा कर देखिएगा, आज से लेकर परसों तक इस देश का हर पत्रकार आपको स्‍वयंभू अर्थशास्‍त्री जान पड़ेगा। वह कुछ का कुछ अटर-पटर बोलेगा। उसकी बात को गंभीरता से मत लीजिएगा।

एक औसत भारतीय पत्रकार का अर्थशास्‍त्र ज्ञान मीडिया के मौसम विज्ञान जैसा है जिसके माइकवीरों को हमेशा तेज़ हवाएं चलने पर सिर्फ एक शब्‍द का पता होता है- वेस्‍टर्न डिस्‍टरबेन्‍स। कभी ग़ौर कीजिएगा, बहुत हंसी आएगी।

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