तारकेश कुमार ओझा
बाबाओं की रहस्यमय दुनिया से अपना सामना बचपन में ही हो गया था। हालांकि तब का बचपन भविष्य और करियर नाम की चिड़िया को जानता तक नही था। बेटों का हाल भी बेटियों जैसा था। जो जैसे – तैसे घास – फूस की तरह बड़े हो जाते थे।मोहल्लों में बाबाओं की धूम तब भी रहा करती थी। एक बार मोहल्ले से कुछ दूरी पर बड़ा धार्मिक आयोजन हुआ। जिसमें एक साथ कई बाबाओं का आगमन हुआ। हालांकि यह समागम अपनी जान का दुश्मन बन गया। क्योंकि बड़े बुजुर्गो की हमें रोज फटकार सुनने को मिलती थी… पता नहीं कहां आवारागर्दी करते फिरते हो… यह भी नहीं कि फलां कार्यक्रम में जाकर अच्छी – अच्छी बातें सुनो… नालायक कहीं के … फलां के बेटे को देखो कितनी तल्लीनता से भजन गाता है… फलां का भतीजा कितनी अच्छी हारमोनियम बजाता है… वगैरह- वगैरह। इस रोज – रोज की फटकार से परेशान होकर हम भी प्रवचन सुनने जाने लगे। लेकिन बाबाओं की बातें अपने पल्ले बिल्कुल नहीं पड़ती थी। वहीं ध्यान – भजन की बातें। भज ले – भज ले हरि नाम जप ले… जैसी बातें सुन – सुन कर हमारे मन में तरह – तरह के यक्ष प्रश्न खड़े हो जाते। आखिर क्या जपें औऱ क्या भजें। अगर हर कोई ध्यान – भजन में ही लग जाए तो फिर दुनिया का काम कैसे चले। सबसे बड़ा सवाल मन में यह उठता कि बाबा लोग गरीब – गुरबों को परलोक सुधारने का उपदेश दे रहे हैं। आखिर जिनका यह लोक ही नहीं सुधर पाया तो वे अपना परलोक कैसे सुधारें। सबसे बड़ा सवाल यह कि एेसे आयोजनों के प्रायोजक यानी सेठजी टाइप लोग जो गरीब – गुरबों के लिए तरह – तरह के प्रवचन की व्यवस्था करते , उनकी दुकानें , मिल व गद्दी वगैरह बदस्तूर चलती रहती थी। वे भक्ति व कर्म के बीच गजब का संतुलन कायम रखते हुए दोनों जगहों पर उपस्थिति बनाए रखते। इस दौर के बाद भी अनेक बाबाओं को देखने – समझने का मौका मिला। मेरे मोहल्ले का एक बिगड़ैल युवक लोगों के तिरस्कार से तंग आकर एक दिन साधु बन गया। कई साल बाद लौटने पर उसने बताया कि अब तक न जाने कितने ही स्वर्णाभूषण और बेहिसाब पैसा उसे मिल चुका है। हालांकि उसने अपने पास कुछ भी नहीं रखा। जैसे उसे मिलता वैसे ही वह उनका दान भी करता जाता। फिर वह दौर भी आया जब बाबा लोग हाइटेक होने लगे। उनका लाइव प्रवचन टेलीविजन पर टेलीकास्ट होने लगा। हालांकि सबका सार यही कि यह जगत मिथ्या है। आदमी को कभी घमंड या मोह नहीं करना चाहिए। लेकिन विरोधाभास यह कि प्रवचन देने वाले वही बाबा दान – दक्षिणा के समय मुंह लटकाए बैठे हुए हैं। जबकि इससे पहले वे खुद ही श्रीकृष्ण – सुदामा की अद्वितीय मित्रता का बखान कर चुके होते। कुछ देर पहले जो गरीबी को ईश्वर का वरदान बता रहे थे। लेकिन एेसा कहने वाले स्वयं लकधक कपड़ों में कीमती गहनों से सजे हुए हमेशा तर माल पर ही हाथ साफ करते नजर आते थे। एक बार यह देख कर मुझे गहरा धक्का लगा कि एक नगर सेठ के यहां भोजन के दौरान एक बाबा इस बात से नाराज हो गए क्योंकि एक बच्चा उनके बगल से गुजर गया था। एेसी बातें अब भी कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में नजर आ ही जाती है। कई बाबा एेसे रहे जो अपने अच्छे दिनों में भक्तों को धैर्य – संयम व संतोष की सलाह देते रहे। लेकिन जब अपने जीवनकाल में संकट आया तो धैर्य न रख सके। रोते – बिलखते हुए साजिश – षडयंत्र का आरोप लगाने लगे। अब हिसार वाले बाबा रामपाल का हश्र देख कर भी हैरानी ही होती है। हजारों समर्थक व शिष्य हैं तो जरूर उन्हें भी प्रवचन और उपदेश वगैरह दिया होगा। लेकिन आज खुद पर मुसीबत आई है तो एेसे भाग रहे हैं जैसा सामान्य व्यक्ति भी न भागे। हालांकि सभी बाबाओं के मामले में यह नहीं कहा जा सकता है। मेरे शहर में स्थित एक मंदिर में साधु – संतों का आना – जाना लगा ही रहता है। कुछ साल पहले तकरीबन15 साल का एक बाल साधु उस मंदिर में आया था। वह उस मंदिर में जितने दिन भी रहा, आम साधुओं के विपरीत उसने कभी किसी से कुछ नहीं मांगा। हालांकि सेवादार उसके सामने हाथ जोड़े खड़े रहते। सेवा का अवसर प्रदान करने का अनुरोध करते। लेकिन वह टाल जाता। इस पर कई लोगों ने आश्चर्य के साथ उससे पूछा… बाबा , आप कभी कुछ मांगते नहीं । जो मिल जाता है . चुपचाप उसे स्वीकार कर पड़े रहते हैं। इस पर वह बाल साधु हंसते हुए बोला… बच्चा अगर मांग लिया तो फिर कैसा साधु। कुछ दिन बाद वह चुपचाप शहर से चला भी गया….।
(लेखक दैनिक जागरण से जुड़े हैं।)