अजीत अंजुम (मैनेजिंग एडिटर, न्यूज24) के यादों के झरोखे से : तीसरी किस्त
1.दिल्ली में रिपोर्टिंग का जिम्मा मिला और लगा कि जिंदगी का एक सपना साकार हो गया : अजीत अंजुम
2.माँ ने सुना कि मैं पत्रकार बनना चाहता हूँ तो दुखी हो गयी : अजीत अंजुम
मुजफ्फरपुर के दिनों में तो मैं दिल्ली में पत्रकारिता करने का तो सपना भी नहीं देख पाता था…हमारे सपनों की सीमा पटना तक जाकर खत्म हो जाती थी … दिल्ली तो हमारे सपनों की सरहदों से बाहर थी . नवभारत टाइम्स और दैनिक हिन्दुस्तान के पटना संस्करण में रिपोर्टर की नौकरी से बड़ा सपना तीन सालों तक नहीं देख पाया . 1987-88 के दिनों को याद करुं तो पटना के अखबारों में नवेन्दु, श्रीकांत , अनिल चमड़िया , कुमार दिनेश ,उर्मिलेश, सुरेन्द्र किशोर, प्रभात रंजन दीन , वेद प्रकाश वाजेपेयी , अवधेश प्रीत , हेमंत , आनंद भारती , अली अनवर , मणिमाला , सुकीर्ति समेत दर्जनों लोग छपा करते थे ….रविवार , माया , दिनमान और धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं में लिखने वाले पत्रकारों में जयशंकर गुप्त , विकास कुमार झा , अरुण रंजन जैसे नामचीन लोग थे …इनमें से कोई मुझे नहीं जानता था ,लेकिन मैं सबको जानता था . वैसे ही जैसे मुझे मनमोहन सिंह नहीं जानते हैं लेकिन मैं उन्हें जानता हूं …मैं भी इनमें से कईयों जैसा बनने का सपना लिए मुजफ्फरपुर में साइकिल की सैर करता रहता था …सिंगल कॉलम और डबल कॉलम खबर की तलाश में ….मुझे आज भी याद है 1987 के आखिरी महीने में या फिर 88 के शुरुआती महीने में जार्ज फर्नांडीस एक रैली को संबोधित करने मुजफ्फरपुर आए थे . उनके साथ पटना से आए पत्रकारों के दल में रविवार के बिहार ब्यूरो प्रमुख जयशंकर गुप्त भी आए थे . कचहरी में एक स्थानीय पत्रकार ने मेरा उनसे परिचय करवाया . उन्होंने मुझसे हाथ मिलाकर मेरा नाम दो बार पूछा …तो लगा कि मेरा दिन बन गया …मैं कई दिनों तक अपने दो – तीन युवा साथी पत्रकारों को सुनाता रहा कि कैसे जयशंकर गुप्ता से मेरी मुलाकात हुई और वो मुझे नाम से जान गए हैं …..उन दिनों मैं पटना से छपने वाले अखबार पाटलिपुत्र टाइम्स के लिए मुफसिल संवाददाता की तरह काम कर रहा था ( कार सेवा – बिल्कुल फ्री ) … मणिकांत ठाकुर ( अब बीबीसी में हैं ) डूबते हुए पाटलिपुत्र टाइम्स के आखिरी कप्तान थे और उन्होंने ही मुझे मुजफ्फपुर के मीनापुर ब्लाक से संवाददाता बनाया था …एक ही जिले में एक ही अखबार के लिए सात आठ लोग फ्री में काम करते थे … सबको अलग अलग ब्लाक की डेट लाइन से खबरें लिखने का जिम्मा दे दिया जाता था . उनसे में कुछ वसूली लाल भी होते थे ….ऐसे वसूली लाल नहीं चाहते थे कि मैं मुजफ्फरपुर से खबरें भेजूं …लिहाजा कई बार मेरी खबरों का लिफाफा पटना पहुंचने से पहले गायब करवा देते थे . नवभारत टाइम्स औऱ टाइम्स ऑफ इंडिया का मुजफ्फपुर में ब्यूरो दफ्तर हम जैसे लोगों का आदर्श ठिकाना होता था क्योंकि वहां जाने पर अपना भविष्य दिखता था और खुली आंखों से ये सपना भी कि किसी दिन सामने वाले भाई साहब ( नवभारत टाइम्स से तत्कालीन इंचार्ज प्रमोद कुमार ) की कुर्सी पर या इन्हीं की तरह किसी ब्यूरो की कुर्सी पर मैं भी बैठूंगा….प्रमोद कुमार नाम के प्राणी काफी पहुंचे हुए और घुंटे हुए परजीवी किस्म के पत्रकार थे , जिनकी शहर के सारे बाहुबलियों , रंगदारों और पैसे वालों से रंगीन रिश्ते थे …और जब – तब हम जैसे नवसिखुओं को सामने बैठाकर रौब भी गांठा करते …कभी रघुनाथ पांडे का नाम लेकर तो कभी बृजबिहारी प्रसाद जैसों का नाम लेकर ( रघुनाथ पांडे सबसे बड़े बाहुबली और ठेकेदार थे जबकि बृजबिहारी प्रसाद गुंडागीरी के रास्ते राजनीति में उतर रहे थे , बाद में उनका मर्डर हो गया ) .प्रमोद बाबू काशी के कुलीन पंडे की तरह धोती – कुर्ता और टीका से हमेशा शोभायमान रहा करते थे …ठीक इसके उलट टाइम्स ऑफ इंडिया के ब्यूरो इंजार्च थे . वी वी पी शर्मा टाइम्स ऑफ इंडिया के इंचार्ज थे ( अब हेडलाइंस टुडे में हैं और बहुत अच्छे पत्रकार हैं ) . उन दिनों मैं एल एस कॉलेज में पढ़ता था ..ग्रेजुएशन में पढ़ते वक्त ही पत्रकार बनने की ललक पैदा हुई …पता नहीं ये ललक या सनक कैसे पैदा हुई लेकिन जब हुई तो फिर पढ़ाई की तरफ से ध्यान पूरी तरह उचट गया ..कोर्स की किताबें कम पढ़ता , अखबार और पत्रिकाएं ज्यादा तलाशने लगा …रविवार , दिनमान , माया , धर्मयुग , साप्ताहिक हिन्दुस्तान से लेकर दिल्ली से आने वाला जनसत्ता तक ….हमारी एक टोली बन गई थी …विकास मिश्र, रवि प्रकाश …जैसे साथी थे और रमेश पोद्दार ( जिनका जिक्र मैंने पहले किया है ) हमारे गुरु की तरह थे . जवाहर लाल रोड में एक पाइप की दुकान हुआ करती थी ( जो आज भी है ) . रमेश मोदी उस दुकान के मालिक के साले थे और इसी नाते मालिक ने उन्हें गद्दीनसीन कर रखा था . मोदी जी और पोद्दार जी की पारिवारिक दोस्ती की वजह से हम जैसे पैदल और नवोदित पत्रकारों के लिए ( नौकरी से ) पाइप की वो दुकान एक ठीहे की तरह था . मोदी जी की दुकान पर बैठकर ही हम खबर लिखते और पटना भेजते …कुछ रिपोर्ट दिल्ली की छोटी – बड़ी पत्रिकाओं के लिए भी रवाना करते …रोज यही सोचा करते कि कैसे नवभारत टाइम्स ( पटना ) या दैनिक हिन्दुस्तान ( पटना ) में नौकरी मिल जाए या मुजफ्फपुर से रिपोर्टिंग का मौका मिल जाए . चाहे कुछ महीने फ्री में ही काम क्यों न करना पड़े . पिता जी मुजफ्फपुर में सब जज के तौर पर पोस्टेड थे इसलिए खाने – खर्चे की समस्या नहीं थी . तभी एक दिन पता चला कि नवभारत टाइम्स पटना के संपादक दीनानाथ मिश्रा मुजफ्फरपुर आने वाले हैं और कुछ नए लड़कों से मिलकर परिसर संवाददाता नियुक्त करने वाले हैं …मुझे पता नहीं कि ये आइडिया किसका था लेकिन नवभारत टाइम्स ने बिहार के सभी विश्वविद्यालयों में परिसर संवाददाता बनाने की एक अच्छी परंपरा उन दिनों शुरु की थी . इसी पहल से दर्जनों लड़के पत्रकार बने. हमें जब खबर मिली तो लगा कि नवभारत टाइम्स के दरवाजे हमारे लिए खुल सकते हैं , अगर हम किसी तरह से दीनानाथ मिश्रा जी के पैमाने पर खरे उतर जाएं और परिसर संवाददाता बन जाएं …नवभारत टाइम्स मुजफ्फपुर के दफ्तर में हम जैसे कई लड़के दीनानाथ मिश्र से मिलने पहुंचे . उनके साथ गुंजन सिन्हा और उदय कुमार भी आए थे ( उदय कुमार इन दिनों अमर उजाला के संपादक हैं ) . परिसर संवादादाता के तौर पर तीन लड़के चुने गए . मैं , हरि वर्मा और रवि प्रकाश . कहा गया कि आप लोग अपनी खबरें भेजिए . जिसकी खबर छपने लायक होगी , हम छापेंगे ….तो ऐसे हमारी शुरुआत हई …लेकिन परिसर संवाददाता के तौर पर मैं ज्यादा टिक नहीं पाया क्योंकि विश्वविद्यालय की खबरों की गुंजाइश भी कम थी और हरि वर्मा हमसे ज्यादा तेज या संपर्कों वाला था . उसकी ज्यादा खबरें छपती और तो हमें कई बार ये भी लगता कि पटना में डेस्क पर बैठे लोग उसकी ज्यादा मदद कर रहे हैं …हम दोनों अच्छे दोस्त थे लेकिन भीतर से कंपीटीशन की एक भावना भी थी ….एक दूसरे को पछाड़ने के लिए छोटी – मोटी साजिशें ( अपनी खबर नहीं बताना , या उसकी खबर सुनकर उससे पहले वही खबर भेज देना..) हम करते रहे …
* मुजफ्फरपुर से दिल्ली वाया पटना – पटना में जब मैं एक अदद नौकरी की तलाश में आज , जनशक्ति , नवभारत टाइम्स और पाटलिपुत्र ( जो डूबने की कगार पर था ) भटक रहा था , तब हम जैसे संघर्षशील युवाओं का एक ग्रुप बन गया था . पटना जंक्शन के पास हुंकार प्रेस और उसके पास चाय की दुकान हमारा ठिकाना हुआ करता था. उन दिनों संतोष सुमन दैनिक हिन्दुस्तान में स्ट्रींगर थे और इंची टेप के हिसाब से खबरें लिखा करते थे ( उनकी खबरों को इंच के हिसाब से प्रति इंच एक रुपया दिया जाता था, हम लोग ऐसे साथियों को इंची – टेप वाला पत्रकार कहते थे , ये चलन कई अखबारों में था यहां तक कि दिल्ली के जनसत्ता में भी , जितने इंच की खबर , उतने रुपये ) . संतोष सुमन हमसे काफी सीनियर थे लेकिन कई सालों तक जूता और कलम एक साथ घिसने के बाद भी उन्हें दैनिक हिन्दुस्तान में स्टाफ रिपोर्टर की नौकरी नहीं मिली थी . उन दिनों भी अखबारों में नौकरी मिलने और पाने के कई पैमाने थे . संतोष सुमन उन पैमानों पर फिट नहीं होते थे . जातिवाद , व्यक्तिवाद और चाटुकारिता की जैसी मिसालें तब हमने अखबारों में देखी , उसे आज तक नहीं भूल पाया हूं . दैनिक हिन्दुस्तान बिहार में सबसे पढ़ा जाने वाला अखबार था ( आज भी है ). हरि नारायण निगम उसके संपादक और चंद्र प्रकाश समाचार संपादक हुआ करते थे . संतोष जी अक्सर अपने संपादकों के किस्से सुनाया करते . उनकी किस्सागोई का अंदाज निराला था . मगहिया अंदाज में ( मगध की बोली ) में संतोष जी अपने समाचार संपादक चंद्र प्रकाश को मूनलाइटवा कहकर उसके किस्से सुनाते । चंद्र प्रकाश का अंग्रेजीकरण था मून लाइट . चंद्र – मून और प्रकाश – लाइट . इसी तरह से वो हरि नारायण निगम ( जो बाद में प्रधान संपादक भी बने ) को वो ग्रीन गॉड कॉरपोरेशन कहते. ठेंठ अंदाज में हिन्दुस्तान के भीतर की राजनीति और पत्रकारों के किस्से सुनाते . इंची -टेप के हिसाब से कम पैसे पाकर भी खुश रहते और हमें चाय पिलाने में कभी कंजूसी नहीं करते . हुंकार प्रेस के उस ठीहे पर अरुण सिंह , प्रमोद दत्त , विकास मिश्र , रवि प्रकाश , अभिमनोज समेत कई पत्रकार रोज अड्डा जमाते . प्रमोद दत्त उन दिनों भूभारती और दिल्ली प्रेस की पत्रिकाओं के लिए बिहार से काम करते थे . विकास देश भर की पत्र पत्रिकाओं के लिए थोक भाव से लिखते थे. रवि प्रकाश जनशक्ति में थे . सबके अपने – अपने संघर्ष थे फिर भी कभी -कभी शाम को मयनोशी का प्रोग्राम बन ही जाता था . सब आपस में दस – दस रुपए चंदा करते . फिर दारु की बोतल और दो दर्जन उबले हुए अंडे के साथ कहीं बैठकी जम जाती …मैं पीता नहीं नहीं था सो अपने दस रुपए का हिसाब बराबर करने के लिए सात – आठ अंडे खा जाता …लोग धीरे – धीरे पीते और मैं तेजी से अंडे खाता …रवि प्रकाश और अभिमनोज भी नहीं पीने वालों में थे लेकिन अंडों के प्रति उनका कोई खास लगाव नहीं था …..उन दिनों हम जैसे युवा संघर्षशील पत्रकारों के लिए साइकिल सबसे आदर्श सवारी थी और मोटरसाइकिल – स्कूटर संपन्न पत्रकारों की पहचान…कार वाले किसी पत्रकार से अपना परिचय नहीं था. कुछ कार वाले थे भी तो वो हमें परिचय करने लायक नहीं मानते थे . सो दूरियां दोनों तरफ से बन जाती थी . पटना में उन दिनों नामचीन और बड़े पत्रकार के कई मठ थे . एक मठ विकास कुमार झा का था , जो माया के ब्यूरो चीफ थे . एक अरुण रंजन का था , जो नवभारत टाइम्स दिल्ली के लिए लिखते थे ( बाद में पटना के संपादक बने और अब दिल्ली में रहते हैं) . और भी कई ऐसे नामधारी पत्रकार ….ये नामधारी लोग आसानी से किसी को पनाह नहीं देते थे , जब तक डीएनए से लेकर लायलटी टेस्ट न ले लें . गुटाधीशों के दरवाजे जातीय आधार पर भी खुलते थे. जनसत्ता के ब्यूरो चीफ सुरेन्द्र किशोर वैसे बहुतों से अलग थे. शांत , विनम्र और बहुत कम बोलने वाले. सुरेन्द्र जी बोलते कम थे लेकिन लिखते बहुत थे . दिखने – बोलने में जितना विनम्र और सरल , लिखने में उतने ही मारक …उनसे पहली मुलाकात और परिचय के बाद उनका काफी स्नेह मिला .. 1989 के मई महीने में मगध एक्सप्रेस से दिल्ली आने के पहले मुजफ्फरपुर , बेगूसराय , पटना और गुवाहाटी तक में हमने बहुत धक्के खाए …बहुत हिचकोले खाए…मुजफ्फरपुर से पटना यूं तो मैं आता – जाता रहता था लेकिन पत्रकारिता करने के लिए बोरिया बिस्तर लेकर पटना में जमने का फैसलाAbhimanoj Mcij Vikas Mishra और रवि प्रकाश के शिफ्ट होने पर किया.
मुजफ्फरपुर से दिल्ली वाया पटना एवं गुवाहाटी
पटना से दिल्ली की ट्रेन पकड़ने से पहले गुवाहाटी में भी दो महीने नौकरी की थी . गुवाहाटी में पहली नौकरी मिलने की खबर जब पिता जी को मिली तो वो बहुत खुश हुए . पिताजी ने सोचा जिस बेटे को उनका समाज और उनसे साथी अफसर अवारा – अबंड और नालायक ( क्योंकि मैं बाकी लड़कों की तरह पीओ – सीओ वाले कंपीटीशन की तैयारी नहीं कर रहा था ) मान रहे थे, उसे अगर नौकरी मिल गयी है तो क्यों न इसे सेलिब्रेट करके जमाने को बताया जाए . मां के कहने पर पिता जी ने बेगूसराय में सत्यनारायण भगवान की पूजा – पाठ का आयोजन किया और साथ में पड़ोसियों और रिश्तेदारों को खिलाने – पिलाने का इंतजाम भी . जितने लोग पूजा और खाने पर आए , सबको मां – पिता जी बताते रहे कि बेटे को गुवाहाटी से निकलने वाले एक अखबार में नौकरी मिल गयी है . आधे लोग तो मुझे और मेरी नौकरी को ऐवैं ही समझकर खाए और खिसक लिए . बाकी भी रहस्यमय नजरों से मेरी ओर देखते रहे और आते – जाते रहे. पिता जी मेरी नौकरी को दुनिया की किसी भी नौकरी से ज्यादा असरदार और शानदार साबित करने की नाकाम कोशिश कईयों के सामने करते रहे . उन्हें क्या पता था कि बेटा फिर नालायक निकलेगा . जिस नौकरी में टिके रहने के लिए पूजा – पाठ और पंडितों से कथा करवाकर मुझे रवाना कर रहे हैं , वो नौकरी दो महीने में छूटने वाली है. दो महीने बाद जब मैंने गुवाहाटी से फोन पर मां को बताया कि मैंने अखबार मालिक के रवैये के विरोध में नौकरी छोड़ दी है तो मां समझने को ही तैयार ही नहीं हो रही थी कि नौकर का मालिक से क्या विरोध हो सकता है . पांच मिनट में झल्लाकर मैंने इतना ही कहा था कि तुम नहीं समझोगी . मैं आ रहा हूं , बस. पिता जी को बताया तो ठंढे स्वर में उन्होंने कहा – चलो , कोई बात नहीं …लेकिन बेटा , नौकरी में तो कुछ देह दाबकर रहना पड़ता है न …लेकिन मैं उन दोनों की तकलीफ समझ रहा था . पड़ोसियों और रिश्तेदारों को मेरी नौकरी का भोज देकर उन्होंने मुझे गुवाहाटी भेजा था , अब वो किस मुंह से कहते कि बेटा दो ही महीने में बेरोजगार होकर घर आ रहा है …यही वो एक बड़ी वजह थी कि मैंने तय किया कि अब बिना नौकरी के घर नहीं लौटूंगा . पटना में नहीं रहूंगा . अब दिल्ली जाऊंगा ….दिल्ली में हमारे साथी रवि प्रकाश थे . गुवाहाटी से ही उन्हें फोन किया और दिल्ली आने का फैसला भी ….
दरअसल गुवाहाटी के उस अखबार का मालिक ऐसा था , जिसे एक दिन भी झेलना मुश्किल था . किसी तरह दो महीने हमने झेला और जिस दिन लगा कि अब झेलना मुश्किल है , उस दिन खरी खोंटी सुनाकर अपने साथियों के साथ इस्तीफा दिया और दफ्तर से निकल गए …नौकरी छोड़ने की कई वजहें थी . एक वजह कॉलबेल भी था . उस अखबार के मालिक के पैरों तले तीन तरह के कॉलबेल का बटन था . एक चपरासी के लिए , दूसरा संपादकीय विभाग के लिए और तीसरा मार्केटिंग के लिए . हर घंटी की आवाज अलग अलग थी और घंटे बजते ही किसी न किसी को मालिक के कमरे में जाना होता था . मालिक का नाम था गोवर्धन अटल ( जो अटल तो किसी चीज पर नहीं होते थे लेकिन खांटी संघी थे .शायद अटल जी के नाम से प्रभावित होकर उन्होंने अपने नाम के आगे अटल लगा लिया था , हालांकि ये बात मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता ) . इसी घंटी की आवाज ने एक दिन हमें बगावत करने को मजबूर किया . पटना से गए हम पांच पत्रकारों ने एक साथ नौकरी छोड़ने का फैसला किया . मालिक के कमरे में नौकरी छोड़ने की सूचना देने हम एक साथ गए . मालिक के समझाने – बुझाने – पुचकारने और आखिर में धमकाने का जवाब देते वक्त तक हम पांचों साथ थे . मैं उनमें सबसे युवा था , लिहाजा सबसे ज्यादा गर्म खून भी मेरा था और गोवर्धन अटल के बेवकूफाना फरमानों का विरोध करते हुए बहस भी मैं ही सबसे ज्यादा कर रहा था . उस कमरे में दाखिल होने से पहले मैंने बाकी साथियों का समर्थन हासिल कर लिया था , सो मैं मानकर चल रहा था कि जो मैं बोल रहा हूं , उसमें सबकी सहमति है . वहां भी किसी ने विरोध नहीं किया . साथ इस्तीफा देने का एलान किया . एक ही साथ वहां से अपने फ्लैट के लिए निकले ( फ्लैट भी हमें अखबार मालिक ने ही मुहैया कराया था ) . घर पहुंचकर हम सब कुछ घंटे तक एक ही राय के थे कि तुरंत इस घर को भी खाली कर देना चाहिए क्योंकि जिस मालिक की नौकरी हमने उसके तौर तरीकों के विरोध में छोड़ी है , उसके घर में एक दिन भी नहीं रहना चाहिए ….लेकिन कुछ घंटों के भीतर हम पांच दो गुटों में बंट गए . तीन एक तरफ और बाकी दो दूसरी तरफ . दूसरी तरफ वाले दोनों भाई उसी अखबार मालिक के संपर्क में आ चुके थे और हमें बताए बगैर उसके दूत से मिलकर उसी अखबार में वापस जाने का फैसला कर चुके थे . बदले में दोनों की तनख्वाह बढ़ा दी गयी . जिम्मेदारियां बढ़ा दी गयी .दोस्तों से दगा और मालिक से वफादारी की जो कीमत उन्हें मिलनी चाहिए थी , तत्काल प्रभाव से मिली . हमारे देखते – देखते मिली. 22 साल की उम्र में पहली बार नए किस्म का तजुर्बा हुआ. पटना से हम पांच साथ आए थे . दो रह गए . तीन वापस चले. ठगे – ठगे से ….किसी और से नहीं …दोस्तों से ….जिनके साथ हमने गुवाहाटी में झंडे गाड़ने के सपने देखे थे…. दोपहर को जो लोग मालिक के सामने बागी तेवर के वक्त हमारे साथ थे , रात होते – होते उन्हें अखबार मालिक की बातें सही और हमारा तेवर और विरोध गलत लगने लगा था . हमने उसी शाम तय किया कि अब इस फ्लैट में एक मिनट भी नहीं रहेंगे . जिसकी नौकरी छोड़ दी , उसके फ्लैट में क्यों रहें ( अखबार मालिक ने किराए पर लेकर वो फ्लैट हम पांचो को दिया था ) . हमारे दोनों साथियों ने उस शाम हमें मालिक के पक्ष में समझाने के बाद हमारा साथ छोड़ दिया. गुवाहाटी में उन दिनों बोडो आंदोलन चल रहा था . ट्रेनें बंद थी लेकिन हमने सामान पैक किया और घर से निकल पड़े. मैं ,रत्नेश कुमार और हिमांशु. बाकी दोनों साथियों ने लंबे समय तक उसी अखबार में काम किया .उत्तरकाल के नाम से वो अखबार निकला. बाद में उनमे से एक बड़े अखबार के संपादक बने . हम तीन किसी तरह एक होटल में प्रति बेड रुपये रोज पर रात गुजारने और दस रुपये रोज की खुराक पर सात – आठ दिन गुजारने के बाद पटना लौटे . उनमे से एक अभी पटना हिन्दुस्तान में हैं . दूसरे गुवाहाटी के दूसरे अखबार में और तीसरा मैं …गुवाहाटी में नौकरी मिलने की कहानी तो दिलचस्प नहीं है लेकिन नौकरी छोड़ने और फिर कई दिनों तक दस रुपए रोज वाले होटल में पड़े रहने के बाद पटना लौटने की कहानी दिलचस्प है . मेरे ख्याल से फरवरी 1988 का महीना होगा , जब पटना में गुवाहाटी से निकलने वाले एक अखबार में पत्रकारों के चयन के लिए टेस्ट का आयोजन हुआ . मेरे जैसे कई फ्रीलांसर और बे – नौकरी ( बेरोजगार नहीं था मैं ) लड़कों ने उस टेस्ट में हिस्सा लिया . पटना के वरिष्ठ पत्रकार चंद्रेश्वर जी उस अखबार के संपादक होकर जा रहे थे . पटना से जिन छह लड़कों ( एक दो सीनियर लड़के भी थे , जिन्हें लड़का कहने पर एतराज हो सकता है ) का चयन हुआ , उसमें मैं भी था ….आठ सौ की तनख्वाह पर मैं बहाल हुआ था . कहानी लंबी है गुवाहाटी की …उस अखबार के मालिक की …
(फेसबुक से साभार)