आज के बच्चे तीन अभिभावकों द्वारा पाले-पोसे जा रहे हैं. मां, बाप और टेलीविजन. ‘टीवी और बच्चों के विकास’ पर बीबी मोहंती का यह वाक्य एक निष्कर्ष के रूप में लंबे समय से चलता आया है. टेलीविजन बच्चों पर बुरा असर डालता है, जैसे सनातन वाक्यों के जरिये इसकी व्याख्या होती रही है. लेकिन बदलती शहरी जीवन शैली के बीच हजारों माता-पिता अपने बच्चों को टेलीविजन की गोद में पटक कर दिन-दिन भर बच्चों के बीच नहीं होते हैं. सवाल है कि मां-बाप की गैरमौजूदगी में इस अकेले अभिभावक टेलीविजन का बच्चे के साथ का रिश्ता क्या है और वह कितनी देर तक उसे महज एक बाल दर्शक के रूप में देखता है.
टेलीविजन की बुनियाद इसी बात पर टिकी है कि जो भी इसकी संगत में आयेगा, वह उसे नागरिक की सीढ.ी से खिसका कर पहले प्रतिबद्ध दर्शक और धीरे-धीरे उपभोक्ता के रूप में परिवर्तित करेगा. वैसे अब जो बिजनेस फॉरमेट टेलीविजन विकसित कर रहा है, वहां दर्शक होना, उपभोक्ता होने से अलग नहीं है. क्योंकि साबुन, शैंपू, परफ्यूम और गाड.ी के विज्ञापन उपभोक्ता पैदा करने की संभावना को विस्तार देते हैं, तो उसके कार्यक्रम भी राजस्व पैदा करने की मशीन के रूप में काम आते हैं. टेलीविजन अर्थशास्त्र और उसके बीच पनपनेवाली टीवी संस्कृति, दरअसल माता-पिता के बच्चों को टेलीविजन की गोद में छोड.ने और अकेले में बने इस रिश्ते के बीच से ही पनपते हैं. ऐसे में अगर आप गौर करें तो ‘ये रिश्ता क्या कहलाता’ है का डुग्गू या ‘बडे. अच्छे लगते हैं’ की पीहू लोकप्रिय टीवी सीरियलों के फिलर्स भर हैं, ताकि अगर घर के बडे. सदस्य इन्हें देख रहे हैं तो उन्हें सीरियलों के बाल विहीन होने की कचोट न हो या फिर उनका ही बच्चा उन्हें काटरून चैनलों की तरफ शिफ्ट होने की जिद न करे. इन्हें छोड. दें तो घर के ड्राइंगरूम में टीवी और बच्चे के अकेलेपन के बीच का रिश्ता ज्यादा हावी है.
बच्चों की जिद, डिमांड और लगातार पूछे जानेवाले सवालों से पिंड छुड.ाने के लिए भी घर के सदस्यों ने उन्हें टीवी के हवाले छोड.ना शुरू कर दिया है. टेलीविजन ने अपना अर्थशास्त्र उनको केंद्र में रख कर गढ.ना शुरू किया. क्षेत्रीय और राष्ट्रीय चैनलों के दर्शक आंकड.ों पर गौर करें, तो 6-8 प्रतिशत दर्शक बो हैं और इसी अनुपात में उनके कार्यक्रम और बाकी चैनल भी हैं. ये कार्यक्रम और चैनल, कंटेंट के स्तर पर बच्चों को एक ऐसी दुनिया में ले जाते हैं, जिनमें बडे.-बुजुगरें का कोई दखल न हो और ऐसा करते हुए भी वे बाल चरित्र बाल दर्शकों का आदर्श बन कर स्थापित हो सकें. लेकिन बच्चों पर आधारित ये चैनल और कार्यक्रम सिर्फ दर्शक संख्या पर अपनी पकड. बना कर सफल नहीं हो जाते. वे 360 डिग्री मीडिया फॉरमेट यानी कि चैनल के साथ वेबसाइट, पत्रिका, रेडियो, दुकान, सिनेमा को भी इसमें शामिल करते ही हैं और इसके अलावा उन तमाम ठिकानों इलाकों में मौजूद हो जाते हैं, जो बच्चों की दुनिया छूती है. ऐसे में बच्चे की पानी की बोतल से लेकर बैग, नोटबुक, पेंसिल बॉक्स, शॉपिंग मॉल के भीतर की उनकी डिमांड में बेनटेन शामिल होता चला जाता है, तो आश्चर्य नहीं. जो आपके लिए महज काटरून चरित्र हैं, वो बच्चों की दुनिया के सरताज हैं. इस एवज में बच्चे अगर वास्तविक दुनिया के जीव-जंतुओं, पेड.-पौधों, लोगों, रिश्तों से किनाराकशी करते हैं, तो अकेलेपन में बने इस रिश्ते की बड.ी जीत है. दूसरी बात यह कि अकेलेपन का यह रिश्ता घर के सदस्यों की मौजूदगी में भी धीरे-धीरे बरकरार रहने की कोशिश करता है. हम टीवी के बटन द्वारा चैनल बदलने के दौर से रिमोट युग में आते हैं, तो यह सवाल और जरूरी हो जाता है कि इस रिमोट पर बच्चे की पकड. पहले से कितना गुना बढ.ी है. सीधी सी बात है कि इस पर जितनी उसकी पकड. बढे.गी, घर में फ्रिज, टीवी, दीवारों और कारपेट के रंग और डिजाइन तय करने में उसकी भूमिका बढे.गी या प्रभावित करने की आदत बढे.गी.
इधर जो टेलीविजन सालों से आंख की रोशनी से लेकर दिमाग और कल्पनाशीलता पर पड.नेवाले बुरे प्रभाव को लेकर बदनाम हो रहा है, उसने अपनी इस बदनामी को बड.ी ही खूबसूरती से दूर करना शुरू किया है. उसने धीरे-धीरे बच्चों को महज दर्शक के रूप में बने रहने के बजाय अपना प्रतिभागी बनाना शुरू किया. उसने माता-पिता को यह यकीन दिलाया कि करियर और जिंदगी की ऊंचाई छूने के जो मौके नागरिक समाज और कॉपी-कलम की दुनिया नहीं दे सकती है, वो हम दे रहे हैं. आखिर कौन ऐसे माता-पिता होंगे, जो अपने बच्चों को अपने आसपास के क्षेत्र में नाम के साथपहचाने जाने की ललक पाले नहीं जीते हों. दूरदर्शन ने महज प्रप्रतिनिधित्व और सूचना के लिए थोडे. बाल आधारित कार्यक्रमों का प्रसारण शुरू किया. निजी टेलीविजन ने अपनी पूरी दुकान ही इनके नाम पर खोल दी. हजारों के बीच ‘इंडियन आयडल’ किसी एक के ही होने, एक ही ‘लिटिल चैम्प’ होने के कड.वे सच के बीच भी इसने प्रतिभाओं के कई छोटे, बडे., क्षेत्रीय, राष्ट्रीय, ग्रामीण, शहरी संस्करण पैदा किये.
ये प्रतिभाएं नागरिक समाज में जिन मोरचों पर पिट सकती थीं, टीवी ने उनके भीतर उम्मीद का एक टुकड.ा छोड.ना शुरू किया कि आप बहुत मेहनत करके डॉक्टर, इंजीनिंयर न बनने की स्थिति में अपनी खास आदत, रुझान या प्रतिभा से वही सब, बल्कि उससे कई गुना ज्यादा अजिर्त कर सकते हो. तो टेलीविजन के प्रति समाज के नकारात्मक नजरिये के बीच उससे जुडे. रहने की अनिवार्यता बनती गयी. अपनी इस रणनीति में टीवी बच्चों को कितना सहेज पा रहा है, यह सवाल अब इस बात पर शिफ्ट होता जा रहा है कि बच्चों के लिए बचपन ही अगर उनकी पूंजी है, तो टेलीविजन इन पूंजीपतियों को इसकी अवस्था खत्म होने के पहले ही इसके बूते एक उद्यमी बनने की ट्रेनिंग दे रहा है. उनकी चंचलता, हंसी, आंसू, अनगढ. अंदाज सबके सब कैसे टीवी की कच्ची सामग्री बन कर पिर टयूब से गुजरे तो दोनों के लिए राजस्व का हिस्सा बने, टीवी का व्याकरण यही सिखा-पढ.ा रहा है. ऐसे में इसकी आलोचना उतनी ही आसान नहीं रह गयी है, जितनी 20-30 साल पहले हुआ करती थी. (मूलतः प्रभात खबर में प्रकाशित)
there is good information in it.