आम आदमी पार्टी के अंतर्कलह पर पुण्य प्रसून

आजतक पर पुण्य प्रसून की मुस्कराहट दरअसल !

पहली लड़ाई संघर्षशील कार्यकर्ता और वैचारिक राजनीति के बीच हुई। जिसमें कार्यकर्ताओं की जीत हुई क्योंकि सड़क पर संघर्ष कर आमआदमी पार्टी को खड़ा उन्होंने ही किया था। तो उन्हें आप में ज्यादा तवोज्जो मिली। दूसरी लड़ाई समाजसेवी संगठनों के कार्यकर्ताओ और राजनीतिक तौर पर दिल्ली में संघर्ष करते कार्यकर्त्ताओं के बीच हुई । जिसमें आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय तौर पर चुनाव में हार मिली । क्योंकि सिर्फ दिल्ली के संघर्ष के आसरे समूचे देश को जीतने का ख्वाब लोकसभा में उन सामाजिक संगठन या कहें जन आंदोलनों से जुड़े समाजसेवियों ने पाला, जिनके पास मुद्दे तो थे लेकिन राजनीतिक जीत के लिये आम जन तक पहुंचने के राजनीतिक संघर्ष का माद्दा नहीं था । इस संघर्ष में केजरीवाल को भी दिल्ली छोड़ बनारस जाने पर हार मिली। क्योंकि बनारस में वह दिल्ली के संघर्ष के आसरे सिर्फ विचार ले कर गये थे। और अब तीसरी लडाई जन-आंदोलनों के जरीये राजनीति पर दबाब बनाने वाले कार्यकत्ताओं के राजनीति विस्तार की लड़ाई है। इसमें एक तरफ फिर वहीं दिल्ली के संघर्ष में खोया कार्यकर्ता है तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्तर पर फैले तमाम समाजसेवियो को बटोर कर वैकल्पिक राजनीति दिशा बनाने की सोच है । यानी दिल्ली में राजनीतिक जीत ही नहीं बल्कि इतिहास रचने वाले जनादेश की पीठ पर सवार होकर राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक सक्रियता को पैदाकरने कीकुलबुलाहट है तो दूसरी तरफ दिल्ली को राजनीति का माडल राज्य बनाकर राष्ट्रीय विस्तार की सोच है। टकराव जल्दबाजी का है । टकराव तमाम जनआंदोलनों से जुडे समाजसेवियो को दिल्ली के जनादेश पर सवार कर राष्ट्रीय राजनीति में कूदने और दिल्ली में चुनावी जीत के लिये किये गये वायदों को पूरा कर दिल्ली से ही राष्ट्रीय विस्तार देने की सोच का है। इसलिये जो संघर्ष आम आदमी पार्टी के भीतर बाहर चंद नाम और पद के जरीये आ रहा है

दरअसल वह वैकल्पिक राजनीति या नई राजनीति के बीच के टकराव का है। दिल्ली की राजनीति में कूदे अंरविन्द केजरीवाल हो या अन्ना आंदोलन से संघर्ष में उतरे आप के तमाम कार्यकर्ता। ध्यान दें तो पारंपरिक राजनीति से गुस्साये एनजीओ की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को संभालने वाले या मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था से रुठे युवाओ का समूह ही दिल्ली की राजनीति में कूदा। राजनीति की कोई वैचारिक समझ इनमें नहीं थी। कांग्रेस या बीजेपी के बीच भेद कैसे करना है समझ यह भी नहीं थी। लेफ्ट–राइट में किसी चुनना है यह भी तर्क दिल्ली की राजनीति में बेमानी रही। दिल्ली की राजनीति का एक ही मंत्र था संघर्ष की जमीन बनाकर सिर्फ भ्रष्ट्राचार के खिलाफ खड़े होना। इसलिये 2013 में मनमोहन सरकार के भ्रष्ट्र कैबिनेट मंत्री हो या तब के बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी। राजनीति के मैदान में निशाने पर सभी को लिया गया । यहा तक की लालू-मुलायम को भी बख्शा नहीं गया। यह नई राजनीति धीरे धीरे दिल्ली चुनाव में जनता की जरुरत पर कब्जा जमाये भ्रष्ट व्यवस्था पर निशाना साधती है, जो वोटरो को भाता है। उन्हें नई राजनीति अपनी राजनीति लगती है क्योंकि पहली बार राजनीति में मुद्दा हर घर के रसोई, पानी, बिजली, सड़क का था। लेकिन लोकसभा चुनाव में नई राजनीति के सामानांतर वैकल्पिक राजनीति की आस जगायी जाती है। ध्यान दे दिसंबर 2013 यानी दिल्ली के पहले चुनाव के बाद ही देश भर के समाजसेवियों को यह लगने लगता है कि दिल्ली में केजरीवाल की जीत ने वैकल्पिक राजनीति का बीज डाल दिया है और उसे राष्ट्रीय विस्तार में ले जाया जा सकता है। तो जो सोशल एक्टिविस्ट राजनीति के मैदान में आने से अभी तक कतराते रहे वह झटके में समूह के समूह केजरीवाल के समर्थन में खड़े होते हैं। नेशनल एलायंस आफ पीपुल्स मुवमेंट यानी एनएपीएम से लेकर समाजवादी जन परिषद और तमिलनाडु में परमाणु संयंत्र का विरोध कर रहे समाजसेवियो से लेकर गोवा में आदिवासियों के हक का सवाल उठा रहे संगठन भी आप में शामिल हो जाते है । लोकसभा के चुनाव में तमाम जनांदोलन से जुड़े आप के बैनर तले चुनाव मैदान में कूदते भी है और जमानत जब्त भी कराते है। और झटके में यह सवाल हवा हवाई हो जाता है कि आम आदमी पार्टी कोई वैकल्पिक राजनीति का संदेश देश में दे रही है। तमाम सामाजिक संघठन चुप्पी साधते है।

जन-आंदोलन से निकले समाजसेवी अपने अपने खोल में सिमट जाते हैं। नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी की जीत तमाम वैकल्पिक राजनीति की सोच रखने वालो को वापस उनके दड़बो में समेट देती है । आंदोलनों की आवाज देश भर में सुनायी देनी बंद हो जाती है। लेकिन केजरीवाल फिर से राजनीति से दूर युवाओ को समेटते है । राजनीति के घरातल पर वैचारिक समझ रखने वालो से दूर नौसिखिया युवा फिर से दिल्ली चुनाव के लिये जमा होता है । केजरीवाल सत्ता छोडने की माफी मांग मांग वोट मांगते हैं। ध्यान दें तो दिल्ली चुनाव में केजरीवाल की जीत से पहले कोई कुछ नहीं कहता । जो आवाज निकलती भी है तो वह किरण बेदी के बीजेपी में शामिल होने पर उन्हीं शांति भूषण की आवाज होती है, जो कांग्रेस के खिलाफ जनता पार्टी के प्रयोग को आज भी सबसे बड़ा मानते हैं और राजनीति की बिसात पर आज भी नेहरु के दौर के कांग्रेस को सबसे उम्दा राजनीति मानते समझते हैं। और यह चाहते भी रहे कि देश में फिर उसी दौर की राजनीति सियासी पटल पर आ जाये। लेकिन यहां सवाल शांति भूषण का नहीं है बल्कि उस बिसात को समझने का है कि जो शांति भूषण , अन्ना आंदोलन से लेकर आम आदमी पार्टी के हक में दिखायी देते है वही दिल्ली चुनाव के एन बीच में बीजेपी के सीएम उम्मीदवार किरण बेदी को केजरीवाल से बेहतर क्यों बताते है और केजरीवाल या आम आदमी पार्टी के भीतर से कोई आवाज शांति भूषण के खिलाफ क्यो नहीं निकलती । वैसे जनता पार्टी के दौर के राजनेताओं से आज भी शांति भूषण के बारे में पूछे तो हर कोई यही बतायेगा कि शांति भूषण वैकल्पिक राजनीति की सोच को ही जनता पार्टी में भी चाहते थे। फिर इस लकीर को कुछ बडा करे तो प्रशांत भूषण हो या योगेन्द्र यादव दोनों ही पारंपरिक राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ हमेशा से रहे है। जन-आंदोलनों के साथ खड़े रहे हैं। जनवादी मुद्दों को लेकर दोनो का संघर्ष खासा पुराना है । एनएपीएम की संयोजक मेधा पाटकर के संघर्ष के मुद्दो को भी प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव अपने अपने स्तर पर उठाते रहे हैं। और समाजवादी जन परिषद से तो योगेन्द्र यादव का साथ रहा है। और ध्यान दें तो वैकल्पिक राजनीति को लेकर सिर्फ योगेन्द्र यादव या प्रशांत भूषण ही नहीं बल्कि मेधा पाटकर, केरल की सारा जोसेफ , गोवा के आस्कर रिबोलो , उडीसा के लिंगराज प्रधान, महाराष्ट्र के सुभाष लोमटे,गजानन खटाउ की तरह सैकडों समाजसेवी आप में शामिल भी हुये । फिर खामोश भी हुये और दिल्ली जनादेश के बाद फिर सक्रिय हो रहे है या होना चाह रहे हैं। जो तमाम समाजसेवी उससे पहले राजनीति सत्ता के लिये दबाब का काम करते रहे वह राजनीति में सक्रिय दबाब बनाने के लिये ब प्रयासरत है इससे कार नहीं किया जा सकता । फिर आप से पहले के हालात को परखे तो वाम राजनीति की समझ कमोवेश हर समाजसेवी के साथ जुडी रही है। प्रशांत भूषण वाम सोच के करीब रहे है तो योगेन्द्र यादव समाजवादी सोच से ही निकले हैं।

लेकिन केजरीवाल की राजनीतिक समझ वैचारिक घरातल पर बिलकुल नई है । केजरीवाल लेफ्ट-राइट ही नहीं बल्कि काग्रेस-बीजेपी या संघ परिवार में भी खुद को बांटना नहीं चाहते है । केजरीवाल की चुनावी जीत की बडी वजह भी राजनीति से घृणा करने वालो के भीतर नई राजनीतिक समझ को पैदा करना है। और यहीं पर योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण से केजरीवाल अलग हो जाते हैं। क्योंकि दिल्ली संघर्ष के दौर से केजरीवाल ने पार्टी संगठन के बीच में दिल्ली की सड़कों पर संघर्ष करने वालों को राजनीतिक मामलों की कमेटी से लेकर कार्यकारिणी तक में जगह दी। वहीं लोकसभा चुनाव के वक्त राष्ट्रीय विस्तार में फंसी आप के दूसरे राज्यों के संगठन में वाम या समाजवादी राजनीति की समझ रखने वाले वही चेहरे समाते गये जो जन-आंदोलनो से जुडे रहे। दरअसल केजरीवाल इसी घेरे को तोड़ना चाहते हैं और दूसरी तरफ योगेन्द्र यादव दिल्ली से बाहर अपने उसी घेरे को मजबूत करना चाहते हैं जो देश भर के जनआंदोलनो से जुड़े समाजसेवियो को साथ खड़ा करे। केजरीवाल की राजनीति दिल्ली को माडल राज्य बनाकर राष्ट्रीय विस्तार देने की है। दूसरी तरफ की सोच केजरीवाल के दिल्ली सरकार चलाने के दौर में ही राष्ट्रीय संगठन को बनाने की है । केजरीवाल दिल्ली की तर्ज पर हर राज्य के उन युवाओ को राजनीति से जोड़ना चाहते है जो अपने राज्य की समस्या से वाकिफ हो और उन्हे राजनीति वैचारिक सत्ता प्रेम के दायरे में दिखायी न दे बल्कि राजनीतिक सत्ता न्यूनतम की जरुरतो को पूरा करने का हो । यानी सुशासन को लेकर भी काम कैसे होना चाहिये यह वोटर ही तय करें जिससे आम
जनता की नुमाइन्दगी करते हुये आम जन ही दिखायी दे । जिससे चुनावी लडाई खुद ब खुद जनता के मोर्चे पर लडा जाये । जाहिर है ऐसे में वह वैकल्पिक राजनीति पीछे छुटती है जो आदिवासियो के लेकर कही कारपोरेट से लडती है तो कही जल-जंगल जमीन के सवाल पर वाम या समाजवाद को सामने रखती है । नई राजनीति के दायरे में जन-आंदोलन से जुडे वह समाजसेवियो का कद भी महत्वपूर्ण नहीं रहता । असल टकराव यही है । जिसमें संयोग से संयोजक पद भी अहम बना दिया गया । क्योकि आखरी निर्णय लेने की ताकत संयोजक पद से जुडी है । लेकिन सिर्फ दो बरस में दिल्ली को दोबारा जीतने या नरेन्द्र मोदी के रथ को रोकने की ताकत दिल्ली में आप ने पैदा कैसे की और देश में बिना दिल्ली को तैयार किये आगे बढना घाटे की सियासत कैसे हो सकती है अगर इसे वैकल्पिक राजनीति करने वाले अब भी नहीं समझ रहे है । तो दूसरी तरफ नई राजनीति करने वालो को भी इस हकीकत को समझना होगा कि उनकी अपनी टूट भी उसी पारंपरिक सत्ता को आक्सीजन देगी जो दिल्ली जनादेश से भयभीत है। और आम आदमी से डरी हुई है ।

(लेखक के ब्लॉग से साभार)

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