लड़खड़ाने के बाद अब संभला पुण्य प्रसून का 10तक

अभिषेक श्रीवास्तव, दर्शक की नज़र से

10 तक और पुण्य प्रसून
10 तक और पुण्य प्रसून

अलग-अलग ख़बरों को आपस में किसी एक सूत्र में पिरो कर पेश करने की शुरुआत मेरे ख़याल से टीवी पर पहली बार पुण्‍य प्रसून वाजपेयी ने की थी। आइडिया अच्‍छा था, एक ऐसे सिंगल थीम शो में इस काम को आसानी से अंजाम दिया जा सकता था जिसका कर्ता-धर्ता खुद ऐंकर ही हो और जिसमें ऐंकर स्क्रिप्‍ट से लेकर पैकेज/ग्राफिक्‍स तब सब कुछ उसी के हिसाब से हो।

इसके बावजूद पिछले लंबे समय से खुद पुण्‍य प्रसून ही अपने इस बेहतरीन नुस्‍खे में नाकाम होते चले आ रहे थे और हर बार रात 10 बजे उनका दस्‍तक लडखड़ाया सा लगता था। इसकी एक वजह यह थी कि वे लंबे समय से नवीन कुमार के पैकेज के भरोसे अपना शो खोलते थे, जो भाषा और मुहावरेबाज़ी के मामले में प्रसून के रस्टिक प्रयोगों से बिल्‍कुल अलग दिखता था और शो से नवीन के ओपनिंग पैकेज का साम्‍य नहीं बैठ पाता था। दूसरे, उन्‍हें शो के अंत में विनोद दुआ की तरह गाना बजाने का रोग लग गया था, गोकि प्रसून सांस्‍कृतिक/एस्‍थेटिक मामले में दुआ जितने महीन और नफ़ीस कतई नहीं हैं।

आज दस्‍तक देख कर लंबे समय बाद अच्‍छा लगा। अव्‍वल तो वह नवीन के भारी मुहावरों से मुक्‍त था क्‍योंकि नवीन आजतक से जा चुके हैं। दूसरे, कोई अनावश्‍यक गाना-वाना नहीं बजा। ”तीन टिकट” और तीन चेहरों का बैकग्राउंड पूरे प्रोग्राम में निरंतरता के साथ मौजूद रहा और इमरजेंसी/मीसा के श्‍वेत/श्‍याम विज़़ुअल से ओपनिंग का अच्‍छा इम्‍पैक्‍ट रहा।

कहने का लब्‍बोलुआब यह है कि पत्रकार को किसी भी सूरत में संस्‍कृतिकर्मी की ग्रंथि से मुक्‍त एक पत्रकार ही बने रहना चाहिए, नकल नहीं मारनी चाहिए, दूसरे के सर्वोत्‍तम माल के भरोसे खुद आलस नहीं बरतना चाहिए और अपने यूएसपी से समझौता नहीं करना चाहिए। बाकी तो जो है सो हइये है।

(स्रोत-एफबी)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.