पॉपुलर की भाषा अशुद्धियां मुझे दुखी नहीं करती : राहुल देव

वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने कल अपने फेसबुक पर लिखा था – ‘और अब दिल्ली मेट्रो में दिख गए इस युवक को भी शाबाशी दे दीजिए यह गुदना गुदवाने की सुरुचि, संस्कार और साहस पर।’

राहुल देव, वरिष्ठ पत्रकार
राहुल देव, वरिष्ठ पत्रकार

मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार ने इसपर त्वरित एक लेख ‘राहुल देवजी ! तब आप इंडियन फकर पॉपुलर होने से रोक नहीं सकते’ लिखा था. लेख में विनीत ने अपनी बात रखते हुए कहा कि, ‘राहुल देव ने अपनी वॉल पर मेट्रो में सफर कर रहे एक ऐसे युवक के बांह की तस्वीर लगायी जिसने संस्कृत के श्लोक गोदवाए हुए थे. हालांकि ये श्लोक भी गलत-सलत हैं जिसकी तरफ कविताजी (DrKavita Vachaknavee ) ने ध्यान दिलाया. खैर, राहुल देव इस युवक के इस काम से इतने अभिभूत हैं कि हमलोगों को शाबासी देने की अपील कर रहे हैं क्योंकि इसने सुरुचि, संस्कार और साहस( अनुप्रास अंलकार) का परिचय दिया है. इसे साहस और संस्कार के बजाय पॉपुलर संस्कृति का हिस्सा मानने पर राहुल देव का मुझसे प्रश्न है कि- विनीत, यह ‘पॉपुलर कल्चर’ और पॉपुलर हो जाए तो क्या बेहतर न होगा. क्या जवाब दूं ? लेकिन इतना तो जरुर कह सकता हूं बिल्कुल पॉपुलर हो जाए और आपकी कामना ठीक-ठीक निशाने पर बैठती है तो बल्कि जल्दी हो जाए लेकिन क्या पॉपुलर संस्कृति के कोई भी घटक इसी तरह कामना भर से पॉपुलर होते हैं और इस बीच अगर श्लोक की जगह इंडियन फक्कर पॉपुलर होने लग जाए तो संस्कार की कामना करनेवाले लोगों के हाथ में होता है कि वो ऐसा होने से रोक लें( अब तो शिवसेना भी ऐसा करने में नाकाम हो जाती है). दरअसल पॉपुलर ढांचे के भीतर इस तरह की कामना संस्कृति के मौजूदा रुप को खंडित करके देखने जैसा है और एक तरह से स्वार्थलोलुप नजरिया भी जबकि ये काम इस तरह से करता नहीं है.’

राहुल देव अपने एफबी वॉल पर विनीत की इसी लेख पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं :

एक युवक ने एक संस्कृत श्लोक, एक लोकप्रिय मंत्र गुदवाया यह संस्कारी ‘पॉपुलर’ मुझे बेहतर लगा – राहुल देव

वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव के एफबी वॉल पर
वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव के एफबी वॉल पर

हमारे अति-गंभीर आलोचक-मित्र विनीत कुमार की यह टिप्पणी पठनीय है। अब एक संक्षिप्त जवाब।

हम तो घटिया से घटिया, अशालीन, गालीनुमा आयातित अमेरिकन-अंग्रेजी कचरे को भी लोकप्रिय होने से नहीं रोक पा रहे हैं विनीत। न भोजपुरी, पंजाबी आदि के भद्दे आधुनिक संगीत और गानों, वीडियो को। अभी कुछ दिन पहले ब्रिटेन जाने की अंग्रेजी परीक्षा की कतार में लगे एक स्पष्टतः उच्चवर्गीय युवक की टीशर्ट पर छपे Shit happens को देखा। शायद इसका हिन्दी अनुवाद भी लोकप्रियता (पॉपुलर) के नाम पर चलने लगे कुछ दिनों में। अभी तो दिल्ली के आम युवा नकलची हिन्दी वालों के मुंह से भी शिट ऐसे निकलता है जैसे वह चालू अंग्रेजी उनकी सहज भाषा है जिसमें यह अनौपचारिक प्रयोग चलता है।

जैसे शब्दों, रूपों, आकृतियों के गुदने आजकल धड़ल्ले से नकलची देसी युवा बनवा कर सगर्व घूम रहे हैं, जब भारतीय पारंपरिक रूपाकारों, लिपियों, भाषाओं को पुराना पिछड़ा और ‘अनकूल’ मान कर छोड़ा जा रहा है तब एक युवक ने एक संस्कृत श्लोक, एक लोकप्रिय मंत्र गुदवाया यह संस्कारी ‘पॉपुलर’ मुझे बेहतर लगा, थोड़ा साहस का काम भी।

जिस विराट, महाकाय, महाशक्तिशाली लोकप्रिय सांस्कृतिक उद्योग और उसके उत्पादों के हम चाहे-अनचाहे, सक्रिय-निष्क्रिय उपभोक्ता बना दिए गए हैं, जिससे बच निकल नहीं सकते, उसमें कुछ देसी, कुछ छद्म सांस्कृतिक ही सही, कुछ उथले पर अपने पॉपुलर उत्पाद ही सही अगर दिखते हैं तो मुझे कुछ अच्छा लगता है।

जब खुली सार्वजनिक जगहों पर भारतीय लिपियों, अक्षरों, शब्दों का दिखना भी दुर्लभ होता जा रहा हो तो पॉपुलर के नाम पर, किसी भी कारण से, अगर वे दिखते हैं तो मुझे अच्छा लगता है। इस पॉपुलर की भाषा-अशुद्धियां मुझे दुखी नहीं करतीं। बिना अर्थ समझे, शायद बिना गहरी, सच्ची आस्था के इन सांस्कृतिक-धार्मिक-आस्था प्रतीकों का इस्तेमाल भी परेशान नहीं करता।

धर्म, संस्कृति, आस्था-अनास्था की बहस एक अलग बहस मानता हूं। उसपर फिर कभी।

हां इंडियन फकर कहीं सचमुच कोई चीज़, कोई भाषा प्रयोग है या नहीं मैं नहीं जानता। पहली बार पढ़ रहा हूं। पर अब जब आपने उसका शीर्षक ही बना दिया है तो निश्यच ही एक वर्ग में ‘पॉपुलर’ तो शायद हो ही जाएगा।

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