पुण्य प्रसून बाजपेयी के निशाने पर मोदी-केजरीवाल !

समर्थकों से ज्यादा विरोधियों के रोम-रोम में प्रवेश कर गए हैं मोदी
समर्थकों से ज्यादा विरोधियों के रोम-रोम में प्रवेश कर गए हैं मोदी

वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी ने एक ही लेख में नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल की बहुमत वाली सरकार पर कटाक्ष किया है. अपने लेख में वे लिखते हैं, जो पहले कभी नहीं हुआ वह इतिहास मोदी ने भी रचा और केजरीवाल ने भी। आजादी के बाद पहली बार जनता ने किसी गैर कांग्रेसी को इतनी ताकत के साथ पीएम बनाया कि वह जो चाहे सो नीतियां बना सकता है। और मोदी के सत्ता संभालने के महज नौ महीने के भीतर ही दिल्ली में केजरीवाल को इतनी सीटे मिल गईं कि वह दिल्ली को जिस तरफ ले जाना चाहे ले जा सकते हैं। मोदी सरकार के वादों की फेरहिस्त की हवा दस महीने पूरे होते होते निकलने लगी और केजरीवाल तो पहले महीने ही हांफते हुये नजर आये। तो क्या नेता सत्ता पाते ही जनता को अप्रैल फूल बना देता है या फिर सत्ता का चरित्र ही ऐसा होता है कि जनता को हर वक्त अप्रैल फूल बनना ही पड़ता है। पढ़िये पूरा लेख. (मॉडरेटर)

समर्थकों से ज्यादा विरोधियों के रोम-रोम में प्रवेश कर गए हैं मोदी
समर्थकों से ज्यादा विरोधियों के रोम-रोम में प्रवेश कर गए हैं मोदी

मैं पीएम नही सेवक हूं। मैं सीएम नही सेवक हूं। याद कीजिये बीते दस महीने में कितनी बार प्रधानमंत्री और बीते एक महीने में कितनी बार केजरीवाल ने दोहराया होगा। और अब तो यूपी की सड़कों पर चस्पा मंत्रियों के पोस्टर में भी सेवक लिखा जाता है। तो क्या वाकई राजनीतिक बदल गई। या फिर सत्ता पाने के बाद हर नेता बदल जाता है। यह सवाल देश में हर 15 बरस बाद आंदोलन के बाद सत्ता परिवर्तन और उसके बाद आंदोलन की मौत से भी समझा जा सकता है और आंदोलन करते हुये सत्ता पाने के तरीके से भी। आजादी के बाद से किसी एक नीति पर देश सबसे लंबे वक्त तक चल पड़ा तो वह मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार तले देश को बाजार में बदलने का सपना है। 1991 से 2011 तक के दौर में देश के हर राजनीतिक दल ने सत्ता की मलाई चखी। हर धारा को आवारा पूंजी बेहतर लगी। हर किसी ने अलग अलग ट्रैक का जिक्र कर मनमोहन के पूंजीवाद का ही रास्ता पकड़ा। जिसने कारपोरेट लूट को उभारा। विकास के नाम पर जमीन हथियाने का खुला खेल शुरु किया । देश की संपदा को मुनाफे की थ्योरी में बदला । बहुसंख्य जनता हाशिये पर पहुंची और इन बीस बरस में देश में सबसे ज्यादा घपले घोटाले हुये। शेयर बाजार घोटाले और झामुमो घूसकांड तक से स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले तक कुल 35 बडे घोटाले पांच प्रधानमंत्रियों के दौर में हो गये । सभी को जोड़ के तो 90 लाख करोड़ की सीधे लूट हुई। खनिज संपदा की लूट पचास लाख करोड़ की अलग से हुई। आंकड़ों में ना फंसे बल्कि आर्थिक सुधार की हवा से गुस्से में आये देश ने अन्ना आंदोलन को जन्म दिया तो फिर अन्ना की ही भाषा राजनीतिक भाषण का हिस्सा बनी जिसे मोदी ने खूब भुनाया और केजरीवाल ने इसी आर्थिक सुधार तले हाशिये पर फेंके जा चुके लोगो से खुद को जोड़ा। लेकिन सवाल तो सत्ता के ना बदलने और आंदोलन के जरीये सत्ता परिवर्तन की उस लहर का है जिसे देश बार बार जीता है और फिर थक कर सो जाता है। संसदीय राजनीति के पन्नों को पलटें तो सड़क पर आंदोलन कर ही वीपी सत्ता तक पहुंचे। राजा नहीं फकीर है हिन्दुस्तान की तकदीर है। 1989 में नारे तो यही लगे।

लेकिन किसे पता था महज दो बरस के भीतर मंडल कमंडल का संघर्ष भ्रष्टाचार के खिलाफ बने देश के माहौल को ही उलट देगा। जनता को वीपी ने जिस तरह सत्ता में आने के बाद हर दिन उल्लू बनाया उसमें अब के नेता तो टिक भी नहीं सकते। क्योंकि सामाजिक दूरियों को बनानी वाली लकीर इसी दौर में खिंची। किसी को आरक्षण चाहिये था तो किसी को राम मंदिर। देश के साथ गजब का धोखा हुआ। और आंदोलन फेल हुआ । वीपी से ठीक पहले जेपी को याद कीजिये। वीपी से 15 बरस पहले जेपी भी भ्रष्टाचार के खिलाफ ही आंदोलन करने गुजरात पहुंचे थे। उसके बाद बिहार । और फिर संपूर्ण क्रांति का सपना। लेकिन जेपी के आंदोलन के बाद सारा संघर्ष सत्ता में ही सिमट गया। जेपी आंदोलन नेताओं के लिये सत्ता पाने की याद बन गया और जनता के लिये अप्रैल फूल। और जेपी से 15 बरस पहले लोहिया को याद कीजिये तो समाजवादी सोच की धारा को संसद के भीतर संघर्ष के जरीये शुरुआत कर सड़क पर गैर कांग्रेस वाद का नारा लोहिया ने लगाया। तीन आना बनाम सोलह आना की बहस ने नेहरु की रईसी को डिगाया। तो 1967 में कई राज्यों में गैर काग्रेसी सरकारे बन गयी। लेकिन किसे पता था लोहिया का नाम लेकर समाजवाद का नारा लगाने वाले नेहरु से आगे चाकाचौंध में खो जायेंगे। शायद जनता ने हमेशा इसे महसूस किया इसीलिये तीन दशक तक अपनी मुठ्टी बंद कर रखी। 1984 से 2012 तक कभी किसी को बहुमत की ताकत नहीं दी । लेकिन जब दी तो क्या सीएम और क्या पीएम । हर को जनता ने बहुमत की ताकत दी । लेकिन सत्ता का मिजाज ही कुछ ऐसा निकला कि हर कोई सत्ता को कवच बनाकर जनता को कुचलने में लग गया । कोई नया रास्ता किसी दौर में किसी के पास था नहीं । जो नये रास्ते थे वह भरे हुये पेट वालो के लिये और जश्न को नये नये तरीके से मनाने के थे। वजह यही है कि पीएम मोदी राउरकेला में छाती ठोंक कर अपनी उपलब्धी बताने के लिये मनमोहन की लकीर पहले खींचते हैं । फिर कोयले खादानो से कमाये रकम को बेलौस बोलते हैं। जबकि सवाल खुद की उपलब्धि बताने का नहीं है बल्कि सवाल वादों को पूरा कर जनता की मुश्किलों को खत्म करने का है। इसीलिये जनता को लगता है कि उसे हर दिन अप्रैल फूल बनाया जा रहा है।

क्योंकि मनमोहन सिंह के दौर में जो मुश्किलें मंहगाई, बिजली-पानी,फसल का समर्थन मूल्य, किसानो की बढती खुदकुशी से लेकर रोजगार और शिक्षा स्वास्थय तक की थीं, उसमें कुछ बदलाव आया नहीं है तो जनता सरकार के बेदाग होने से खुश हो जाये या अपनी न्यूनतम जरुरतों के पूरा ना होने पर रोये। क्योंकि बेदाग होकर तो मोरारजी देसाई भी 1977 में पीएम बने । और जेपी के संघर्ष को भी मोरारजी की सत्ता तले जगजीवन राम से लेकर चरण सिह ने भूला दिया। सभी आपस में भिडे तो बहुमत वाली आदर्श सरकार का अंत महज दो बरस में गया। इंदिरा गांधी 1980 में आपातकाल के दाग को धोकर सत्ता में नहीं पहुंची बल्कि जनता पार्टी के जनता से दूर होने और सत्ता के लिये आपस में लडने भिड़ने वालों की वजह से पहुंची। और जनता ने भी दिल खोलकर इंदिरा गांधी का साथ दिया। इंदिरा गांधी को अपनी सत्ता के कार्यकाल में सबसे ज्यादा 353 सीटें 1980 में मिली। यानी जिस रास्ते देश को ले जाना चाहें, इंदिरा ले जा सकती थीं। लेकिन फिर वहीं हुआ , बहुमत वाली सरकार पंजाब संकट को संभालते संभालते खुद ही रास्ते से भटकीं। ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद के हालात ने सत्ता ही नहीं बल्कि इंदिरा गांधी को ही खत्म कर दिया। यानी राजनीति का खूनी अंत भी देश ने देखा। वहीं
राजीव गांधी को तो जनता ने कंधे पर बैठाकर पीएम बनाया। भारतीय राजनीति में इससे बड़ी जीत किसी को इससे पहले मिली नहीं थी। 404 सीटों पर राजीव गांधी की जीत ने तय कर दिया कि आने वाले पांच बरस में देश युवा हो जायेगा । कुछ नये प्रयोग नये तरीके से देश की छाती पर तमगे लगायेंगे। लेकिन बदला कुछ नहीं। जनता हाशिये पर ही रही। बोफोर्स घोटाले की आवाज सत्ता के भीतर से ही उठी। देखते देखते पांच बरस पूरे होने से पहले ही सरकार के सामने ऐसा संकट उभरा कि चुनाव में भ्रष्टाचार ही मुद्दा बन गया और जनता ने राजीव गांधी को अंघेरे में फेंक दिया। लेकिन जिसे चुना उसने जनता को गहरे अंधेरे में ला खड़ा किया।

यानी अब के दौर में बदलाव की राजनीति से खुश ना हों क्योकि जो पहले कभी नहीं हुआ वह इतिहास मोदी ने भी रचा और केजरीवाल ने भी। आजादी के बाद पहली बार जनता ने किसी गैर कांग्रेसी को इतनी ताकत के साथ पीएम बनाया कि वह जो चाहे सो नीतियां बना सकता है। और मोदी के सत्ता संभालने के महज नौ महीने के भीतर ही दिल्ली में केजरीवाल को इतनी सीटे मिल गईं कि वह दिल्ली को जिस तरफ ले जाना चाहे ले जा सकते हैं। मोदी सरकार के वादों की फेरहिस्त की हवा दस महीने पूरे होते होते निकलने लगी और केजरीवाल तो पहले महीने ही हांफते हुये नजर आये। तो क्या नेता सत्ता पाते ही जनता को अप्रैल फूल बना देता है या फिर सत्ता का चरित्र ही ऐसा होता है कि जनता को हर वक्त अप्रैल फूल बनना ही पड़ता है। क्योंकि सवाल सिर्फ मोदी और केजरीवाल का नहीं है । फेहरिस्त खासी लंबी है । केजरीवाल की तर्ज पर बहुमत हासिल कर सत्ता संभाल रहे नेता कर क्या रहे है। सीएम की फेहरिस्त याद कीजिये तो इससे पहले यूपी में अखिलेश यादव को। राजस्थान में वसुधरा राजे सिंधिया को । उडीसा में नवीन पटनायक को। छत्तीसगढ में रमन सिंह को । मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को । और इस फेरहिस्त में एक नाम असम के सीएम रहे प्रफुल्ल महंत का भी याद रखना होगा । 33 बरस की उम्र में प्रफुल्ल महंत तो सीधे कालेज हास्टल से सीएम हाउस पहुंचे थे। केजरीवाल तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करते हुये लोकपाल जपते हुये सीएम बने लेकिन मंहत तो असम में उल्फा के संगीनों के साये के आंदोलन के सामानांतर छात्र आंदोलन करते हुये सीएम बने। यानी कही ज्यादा तेवर के साथ महंत असम के सीएम बने थे। यह अलग बात है कि केजरीवाल को 70 में से 67 सीटें मिली और महंत को 126 में से 67 सीटें मिली थीं। लेकिन असम में खासे दिनों बाद किसी एक दल को पूर्ण बहुमत मिला था तो महंत से उम्मीद भी कुलांचे मार रही थीं। लेकिन अपने सबसे करीबी फूकन से ही मंहत ने राजनीतिक तौर पर दो दो हाथ वैसे ही किये जैसा दिल्ली में केजरीवाल आंदोलन के साथी प्रशांत भूषण से कर रहे हैं। पांच साल महंत की सरकार भी चली। और आने वाले पांच साल तक केजरीवाल की सरकार को भी कोई गिरा नहीं पायेगा। लेकिन भविष्य का रास्ता जाता किधर है इसे लेकर महंत फंसे तो 1990 में चुनाव हार गये और 1996 में दुबारा सत्ता में लौटे तो राजनीतिक तौर पर इतने सिकुड़ चुके थे कि दिल्ली से लेकर असम की सियासी चालों को ही चलने में वक्त गुजारते चले गये और आज की तारीख में सिवाय एक चुनावी क्षत्रप के अलावे कोई पहचान है नहीं है। जो हर चुनाव में सत्ता के लिये संघर्ष करते हुये नजर आते हैं। तो क्या आने वाले वक्त में केजरीवाल का भी रास्ता इसी दिशा में जायेगा। क्योंकिदिल्ली सीएम से ज्यादा पीएम के अधीन होता है। लेकिन जनता की उम्मीदों ने कुंलाचें तो केजरीवाल के जरीये दिल्ली से आगे देश के लिये भर ली है। तो सवाल अब यही उभर रहा है कि क्या केजरीवाल भी पालिटिशियन हो गये जैसे बाकी राज्यों में क्षत्रप बहुमत के बाद जनता से कटते हुये सिर्फ अपना जोड़ घटाव देखते हैं। क्योंकि तीन बरस पहले यूपी की जनता ने पूर्ण बहुमत के साथ सीएम बनाकर अखिलेश यादव को ताकत दी कि वह अपने तरीके से राज्य चलाये। लेकिन जब चलने लगा तो यूपी सांप्रदायिक हिंसा में उलझता नजर आया और सीएम सैफई में कला संस्कृति में खोये नजर आये। दो बरस पहले राजस्थान, छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश में जनता ने बहुमत के साथ वसुधरा राजे, रमन सिंह और शिवराज सिह चौहान को सीएम बनाया। वसुधरा राजे ना तो किसानो को बिजली पानी देने के वादे पर खरी उतर पायी। उल्टे पहली बार मौसम की मार के बाद खुद को बेसहारा मान चुके 19 किसान मर गये। जयपुर के लिये मेट्रो सपना हो गया। ग्रामीण महिलाओ के लिये भामाशाह योजना के तहत मिलने वाला 800 रुपया दूर की गोटी बन गया। वही छत्तीसगढ में नक्सली संकट के सामने रमन सरकार रेंगती दिखी। छत्तिसगढ घान का कटोरा होकर भी किसान का कटोरा भर न सका। पीडीएस घोटाले के सत्ताधारियो को कटघरे में खड़ा कर दिया। जबकि लगातार मध्यप्रदेश के वोटरों ने शिवराज को जिताया। हैट्रिक बनी। लेकिन युवा बेरोजगारों के सपने व्यापम घोटाले ने चकनाचूर हो गये। सवाल उठा कि सत्ता ही अगर भ्रष्टाचार की जमीन पर खड़ी हो जाये तो वह सिस्टम बन सकता है और रोजगार भर्ती के लिये हुये व्यापम घोटाले ने कुछ ऐसा ही कमाल किया कि परीक्षा देने वाले छात्रों को लगने लगा कि सरकार उन्हे अप्रैल फूल बना रही है। नवीन पटनायक को भी उडिसा में जनता ने दो तिहाई बहुमत की ताकत दी । लेकिन ग्रामीण आदिवासियो की हालात में कोई परिवर्तन आया नहीं । मनरेगा की लूट ने सरकार की कलई खोल दी। उड़ीसा का नौकरशाह सबसे भ्रष्ट होने का तमगा पा गया । यानी जिस रास्ते मोदी को चलना है । जिस रास्ते केजरीवाल को चलना है वह बहुमत मिलने के बाद नेता होकर हासिल करना मुश्किल है क्योंकि हर राज्य का नेता सीएम बनते ही सत्ताधारी होकर जिस तरह अपने राज्य को संवारने निकलता है और आंदोलन के पीएम बनकर जिस तरह प्रधानमंत्री सिर्फ बोलते है उसमें नेतागिरी ज्यादा और जन सरोकार खत्म हो जाते है । इसलिये देश हर बार आंदोलन से सपने जगाता है और सत्ता से सपने चूर चूर होते देखता है।  (लेखक के ब्लॉग से साभार)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.