दिल्ली के हिंदी अखबारों में पढ़ने लायक कुछ नहीं होता

दिल्ली के हिंदी अखबारों में पढ़ने लायक कुछ नहीं होता। रूटीन की खबरें और एजेंसी की कॉपी। हो गई इतिश्री। पाठकों के लिए ना कोई दिशा ना कोई विचारोत्तोजक लेख और ना ही कोई खोजपूर्ण रपट। सिर्फ क्लर्की हो रही है।

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नदीम एस.अख्तर-

वाक़ई में, दिल्ली के हिंदी अखबारों में पढ़ने लायक कुछ नहीं होता। रूटीन की खबरें और एजेंसी की कॉपी। हो गई इतिश्री। पाठकों के लिए ना कोई दिशा ना कोई विचारोत्तोजक लेख और ना ही कोई खोजपूर्ण रपट।

सिर्फ क्लर्की हो रही है। अखबारों के ऑनलाइन संस्करण का तो और पतन है। लाइफस्टाइल की खबरों के नाम पे सेक्स, सनसनी और चटपटी -खबरों- का शरबत। उनका टारगेट hits हैं।

बाकी मालिकों और संपादकों की राजनीतिक प्रतिबद्धता ने कोढ़ में खाज को ही बढ़ाया है। अंग्रेज़ी के कुछ अखबार अभी भी धार बचाए हुए हैं, पर उनको इस देश में पढ़ते कितने लोग हैं!!!

एसपी सिंह, राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी जैसे लोगों के बाद नई पीढ़ी में उनके आसपास भी कोई नहीं। जो उनके -चेले- रहे, वक़्त के साथ उन्होंने भी चोला बदल लिए। और जिनमें संभावनाएं थीं, उनको जातिवाद-धर्मवाद-क्षेत्रवाद और गुटबन्दी खा गई। एक डरपोक समूह ज्यादातर हिंदी अखबारों में पैर पसारे पसरा है।

ये हश्र तो होना ही था। मालिक को रेवेन्यू से मतलब है और उनकी नज़र में आज का संपादक बस एक कुशल मैनेजर होना चाहिए। बाकी अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ ही रही है, व्यापार चल रहा है।

नदीम एस अख्तर
नदीम एस अख्तर

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