मोदी का राजनीतिक विकल्प नहीं है तो फिर मीडिया भी कौन सी पत्रकारिता करे!

आजतक पर मोदी-मोदी
आजतक पर मोदी-मोदी
आजतक पर मोदी-मोदी
आजतक पर मोदी-मोदी

बीते सात महीनों में एक सवाल तो हर जहन में है कि देश में मोदी का राजनीतिक विक्लप है ही नहीं। यानी जनादेश के सात महीने बाद ही अगर मोदी सरकार की आलोचना करने की ताकत कांग्रेस में आयी है या क्षत्रपों को अपने अपने किले बचाने के लिये जनता परिवार का राग गाना पड़ रहा है तो भी प्रधानमंत्री मोदी के विकल्प यह हो नहीं सकते। राहुल गांधी हो या क्षत्रपों के नायक मुलायम, नीतिश या लालू । कोई मोदी का विकल्प हो नही सकता है। क्योंकि सभी हारे हुये नायक तो हैं ही बल्कि जनादेश ने जो नयी आकांक्षायें देश में नये सिरे से जगायी है उसके सिरे को पकड़ने में यह तमाम चेहरे नाकामयाब हो रहे हैं। तो फिर विकल्प का सवाल भी सियासी राजनीति से गायब है। इसलिये पहली बार प्रधानमंत्री मोदी की विदेश यात्रा हो या चुनावी प्रचार की रैली के लिये राज्यों का दौरा दोनो में कोई अंतर नजर आता नहीं। भाषण हो या फिर सियासत दोनों जगहों पर अंदाज एकसा भी नजर आता है और कभी न्यूयार्क तो कभी सिडनी की एऩआरआई रैली भी देश के चुनावी रैलियों का हिस्सा भाषण की किसासगोई में बन जाती है तो कभी देश की चुनावी रैली अंतराष्ट्रीय मंच पर प्रधानमंत्री की एनआरआई रैलियो में किस्सागोई की तर्ज पर उभर कर प्रधानमंत्री के कद को नये तरीके से गढ़ती हुई लगती है।

लेकिन सवाल है कि लोकप्रिय होने के मोदी के इस अंदाज को देश के सामाजिक-आर्थिक हालात के कटघरे में खड़े करने का साहस करते हुये भी कोई राजनीतिक दल या किसी राजनीतिक दल का कोई नेता उभर नहीं पाता है। ना उभरने या मोदी विरोध करते हुये ताकतवर दिखने से दूर तमाम नेता कमजोर दिखायी देते हैं। क्योंकि सभी ने अपनी साख सत्ता में रहते गंवायी है। तो फिर सत्ता के हर लडाई सिवाय निजी स्वार्थ से आगे किसी नेता की बढ़ भी नहीं पाती है। ऐसे में मीडिया इस राजनीति के सिरे को पकड़े या पूंछ को हाथ में मोदी की लोकप्रियता ही आयेगी और मीडिया की साख का सवाल यही से शुरु होता है।

दरअसल पहली बार जनादेश पाने वाले हो या गंवाने वाले दोनों ने ही मीडिया को चाहे-अनचाहे एक ऐसे हथियार के तौर पर उभार दिया जहां राजनीतिक-टूल से आगे मीडिया की कोई बानगी किसी को समझ आ ही नहीं रही है । मीडिया के प्रचार से जनादेश नहीं बनता लेकिन जनादेश से मीडिया की साख से खुला खिलवाड़ तो किया ही जा सकता है। मीडिया ने मोदी को ना जिताया ना मीडिया ने राहुल गांधी को हराया। तो भी मीडिया उसी राजनीति का सबसे बेहतरीन हथियार बना दिया गया जहां संपादकों और मालिकों के सामने खुद को ताकतवर बनाने के लिये राजनीतिक सत्ता के सामने नतमस्तक होना पड़े । कोई जरुरी नहीं है कि कोई संपादक राजनीतिक सत्ता के विरोध में खडा हो जाये तो उसे मुश्किल होगी। या फिर कोई मीडिया समूह सत्ता पर निगरानी करने के अंदाज में पत्रकारिता करने लगे तो उसके सामने मुश्किल हालात पैदा हो जायेंगे । मुश्किल हालात उसी के सामने पैदा होगें जिसका धंधा मीडिया हाउस चलाते हुये कई दूसरे धंधों को चलाने वाला हो । यानी मुनाफा व्यवस्था का उघोग अगर कोई मीडिया समूह या कोई संपादक-मालिक चला रहा होगा तो उसके सामने तो मुश्किल सामान्य अवस्था में भी होनी चाहिये। लेकिन मीडिया के लिये राजनीतिक ताकत का मतलब यही होता है कि उसके नाजायज धंधों पर सरकार खामोश रहे। या फिर जो सत्ता में आये वह उस मीडिया समूह के मुनाफे पर आंच ना आने दे। हालांकि गलत धंधे या फिर भारत के सामाजिक आर्थिक हालात में कोई संपादक या मालिक करोडों के वारे -न्यारे करता रहे तो संकट तो उसके सामने कभी भी आ सकता है या कहे उसकी पूंछ तो हमेशा सत्ता के पांव तले दबी ही रहेगी। तो फिर मीडिया की एक सर्वमान्य परिभाषा राजनीतिक सत्ता के लिये बेहतर हालात बनाने के इतर क्या हो सकती है । ऐसे हालात तो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दौर में खूब देखे गये।

खासतौर से पूंजी पर टिके मीडिया व्यवसाय को जिस बारिकी से आर्थिक सुधार तले मनमोहन सिंह ले आये उसमें झटके में मीडिया की पत्रकारिता धंधे में बदली इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन नया सवाल मीडिया के दायरे में उस पत्रकारिता का है जो राजनीतिक शून्यता में खूद को भी शून्य मान रहा है। यानी राजनीतिक विकल्प नहीं है तो फिर मीडिया भी कौन सी पत्रकारिता करे। और पत्रकारिता हवा में सत्ता के खिलाफ हो ही क्यों जबकि उसे कोई राजनीतिक दल थामने वाला है ही नहीं। यह सवाल बड़े बड़े संपादको के दिल में है कि लिख कर कौन सा खूंटा उखाड लेंग । क्योंकि मोदी का कोई विकल्प तो है ही नहीं। और मोदी मौजूदा संसदीय राजनीति के संकट के दौर में खुद विकल्प नहीं है। ऐसे में पत्रकारिता खामोश रह कर ही की जाये तो बेहतर है।

दरअसल यह हालात पहली बार दो सवाल साफ तौर पर खडा कर रहे हैं। पहला, मीडिया को हर हाल में एक राजनीतिक ठौर चाहिये और दूसरा पत्रकारिता सत्ता को डिगाने के लिये कभी नहीं होती बल्कि सत्ता किसकी बनानी है उसके लिये होती है। यानी दोनों हालातों में मीडिया को राजनीति या राजनेताओं के दरबार में चाकरी करनी ही है । इस हालात में एक तीसरा पक्ष है कि क्या देश की समूची ताकत ही राजनीतिक सत्ता में तो सिमट नहीं गयी है। और इस लकीर को संपादक-मालिक अपनी पहल से ही मान्यता दे रहे हैं। क्योंकि मीडिया के भीतर ही नहीं राजनीतिक गलियारे में भी आवाज यही गूंजती है कि एक वक्त के बाद संपादक या मालिक या कद्दावर पत्रकार को तो राजनीति का दामन थामना ही है। यानी मीडिया ने भी मान लिया है कि मीडिया के हालात बदतर होने के बाद हर किसी को राजनीति ही करनी है। संपादक हो या मालिक दोनो को संसद में ही जा कर हालात को संभालना या सहेजना होगा। यानी चुनाव लड़ने या राज्यसभा के रास्ते संसद तक पहुंच कर कहीं ज्यादा बेहतर हालात किसी पत्रकार के हो ना हो लेकिन साख गंवाने के बाद साख गंवा चुकी राजनीति के चौखट पर माथे टेकने से पत्रकार की साख लौट सकती है या बढ़ सकती है। यह अजीबोगरीब तर्क मौजूदा वक्त की नब्ज है। यानी जिस मान को पत्रकारिता करते हुये कोई संपादक नीचे गिराता है उसे उठाने का रास्ता राजनीति का वह मैदान ही बचता है जो राजनीति कभी मीडिया को अपने दरबार में नतमस्तक करती है। ध्यान दें तो पत्रकारिता किसी भी हालात में हो ही नहीं रही है। और यह सवाल जानबूझकर उछाला हुआ सा लगता है कि मनमोहन सरकार के दौर में और मोदी सरकार के दौर में कोई बहुंत बड़ा अंतर आ गया है। दरअसल मीडिया को राजनीतिक सत्ता के दरबार का चाकर किसने और कब कैसे बनाया यह संपादकों की कडी के साथ साथ मीडिया संस्थानों की बढ़ती इमारतों से भी समझा जा सकता है और कद्दावर या समझदार, पैना लिखने वाले संपादकों की राजनीतिक दलों से जुडने के बाद किसी साध्वी या योगी के बयानो को बातूनी अंदाज में व्याख्या करने से भी समझा जा सकता है और मनमोहन सिंह के दौर में कभी विश्व बैंक के मोहरों की राजनीति को देश के लिये हितकारी बनाने वाले सलाहकार पत्रकारों के जरीये भी देखा-परखा जा सकता है। यह वाकई मुश्किल सवाल है कि मौजूदा वक्त में जो कद्दावर पत्रकार सत्ता से चिपटे हुये है, गुनहगार वे हैं या जो पत्रकार इससे पहले की सत्ता के करीब थे गुनहगार वे रहे। हो सकता है गुनहगार दोनों ना लगे और यह सवाल ज्यादा मौजूं लगे कि आखिर पत्रकार सिर्फ पत्रकार होकर ही रिटायर्ड कैसे हो जाये। या फिर मीडिया लोकतंत्र के पहले खम्भे से गलबहिया डाले बगैर अपने चौथे खम्भे के होने का एहसास कैसे कराये। दरअसल यह सारे सवाल 16 मई 2014 के बाद बदले हैं। क्योंकि बीते २०-२२ बरस की पत्रकारिता पर आर्थिक सुधार के बाजारवाद का असर था इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन अन्ना आंदोलन के बाद से २०१४ के लोकसभा चुनाव में पारंपरिक मीडिया को ठेंका दिखाते हुये सामानांतर सोशल मीडिया की भूमिका का प्रभाव जिस तेजी से आंदोलन से लेकर जनादेश तक को सफल बनाने में हुआ उसने पहली बार इसके संकेत भी दे दिये समाचार पत्र या न्यूज चैनल खबरों की पत्रकारिता कर नहीं सकते। और राजनीति को प्रभावित करने वाले विचार इन दोनों माध्यमों के संपादकों के पास तबतक हो नहीं सकते जबतक राजनीति का मैदान सियासी टकराव के दौर में ना आ जाये। यानी राजनीतिक टकराव मीडिया को आर्थिक लाभ देता है। और जनादेश की सियासत मीडिया को पंगु बनायेगी ही ।

तो सवाल है कि दोनों हालात जनता के कटघरे में तो एक से ही होंगे। ऐसे में बिना पूंजी, बिना मुनाफे की सोच पाले सोशल मीडिया धारधार होगा इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता। लेकिन सोशल मीडिया बिना जिम्मेदारी या हवा को आंधी बनाने का खुला हथियार भी हो सकता है। जिसके खतरे सतह पर जमे राजनीति के कीचड़ को विकास भी करार दे सकते है और भ्रष्टचार की परिभाषा को धर्म तले आस्था से जोड कर राजनीतिक सत्ता को सियासी पनाह भी दे सकते है । ऐसे में खतरा सिर्फ यह नहीं है कि मीडिया की परिभाषा बदल जाये या पत्रकारिता के तेवर परंपरिक पत्रकारिता को ही खत्म कर दे। खतरा यह भी है मौजूदा संसदीय राजनीति के पारंपरिक तौर तरीको की साख उस लोकतंत्र को ही खत्म कर दें जो देश में तानाशाही व्यवस्था पर लगाम लगाती रही है । एक वक्त इंदिरा गांधी ने जनसमर्थन से पहले काग्रेस को अपने पल्लू में बांधा और फिर कांग्रेसी चापलूस इंदिरा इज इंडिया कहने से नहीं कतराये। और मौजूदा वक्त में विकल्प तलाशते विपक्ष को सत्तादारी बीजेपी में कोई खोट नजर नहीं आ रहा , एक वक्त हिन्दुत्व के धुरधर अच्छे लग रहे हैं। लेकिन जनादेश के घोड़े पर सवार प्रधानमंत्री मोदी खलनायक लग रहे हैं। यह सारे रास्ते आखिर में लोकतंत्र की नयी परिभाषा तो गढेंगे ही। क्योंकि तबतक निगरानी रखने वाला चौथा स्तम्भ भी अपनी परिभाषा बदल चुका होगा। मुश्किल यह है कि लोकतंत्र के हर स्तम्भ ने इस दौर को जन-आकाक्षांओं के हवाले कर अपनी अपनी पोटली बांध ली है।

(लेखक के ब्लॉग से साभार)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.