के. पी. सक्सेना : व्यंग्य का कबीर

अमरेन्द्र कुमार

कार्टून : सागर कुमार
कार्टून : सागर कुमार
हिंदी व्यंग्य का विकास पत्र -पत्रिकाओं के माध्यम सेसे ही हुआ। व्यंग्यकारों ने नवजागरण के समय समाज में व्याप्त अन्धविश्वास ,अशिक्षा ,जाति -प्रथा, किसान-मजदूर पर जुल्म-अत्याचार, टैक्स,चुंगी आदि पर कलम चलाई। फिर युग बदला, तो व्यंग्य के विषय भी बदल गए।

आजादी के बाद नेताओं ने जनता के लिए रोटी, कपडा, मकान आदि का जो आश्वासन दिया था, वे पूरे नहीं हुए। उनके सारे वायदे खोखले थे। उनहोंने छल-छद्म का रास्ता अख्तियार कर लिया। इसीलिए व्यंग्यकारों ने भी उन नेताओं के कपटी आचरण, धूर्तता आदि पर कलम का नश्तर चलाया और उनक मुखौटा उतरा। वे सभी व्यंग्यकार पत्र -पत्रिकाओं में ही लिखते थे — भले ही वे रचनाएं बाद में किताबों के रूप में प्रकाशित होती थीं। ऐसे ही व्यंग्यकारों की पंक्ति में के. पी. सक्सेना भी शामिल थे।

अभी जमाना उनके व्यंग्य में व्यक्त चुटकी लेने वाली बातों का मजा ले ही रहा था कि वे अचानक सो गए। उनके निधन से हिंदी – पाठकों को एक धक्का लगा और उनके व्यग्य के नश्तर की कलात्मकता याद आने लगी। उनहोंने अपनी धारदार ककलम से पुलिस,नेता, अधिकारी आदि की कलई खोली और गुदगुदाते-गुदगुदाते ऊपरी आवरण हटा कर सत्य का उद्घाटन कर दिया।

मुझे याद आता है कि जब मैं दिल्ली से प्रकाशित हिंदी पाक्षिक ‘युग ‘ का सम्पादक बना, तो व्यंग्य लेख के लिए दिल्ली या बिहार के किसी लेखक को नहीं चुना, बल्कि सक्सेना जी से अनुरोध किया। मैंने सम्पादकीय विभाग के अपने सहयोगियों से परामर्श कियाऔर सक्सेना जी से व्यंग्य लिखवाने लगा। उनके व्यंग्य पर लगातार प्रतिक्रियाएं आने लगीं, तो मेरे मन में उत्साह जगा। मैंने सोचा कि मेरा निर्णय सही था।

अमरेन्द्र कुमार
अमरेन्द्र कुमार
उनके व्यंग्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि हिंदी में उर्दू चाशनी रहती है। पाठकों को इस कारण नया आस्वाद मिलता था। उनकी भाषा बोल-चाल की भाषा के करीब होती थी और उसमें पिरोए गए मुहावरों से एक नया अर्थ खुलता था , इसलिए पाठक उसे बहुत पसंद करते थे। श्रेष्ठ व्यंग्य की यही पहचान है कि एक ही बात से कई अर्थ खुलें। काव्य में एक श्लेष अलंकार होता है, जिसमेंएक शब्द में दो अर्थ चिपके हुए होते हैं। गद्य में वह अलंकार तो होगा नहीं,लेकिन उस अलंकार से काव्य की जो शोभा बढ़ती है , वही शोभा उनके गद्य में थी। उनके व्यंग्य की एक विशेषता यह भी है कि उसमें आक्रोश तो होता है लेकिन मस्ती भी होती है। इसीलिए वे कभी-कभी कबीर की याद दिलाते हैं। व्यंग्य का वह कबीर हमेशा-हमेशा के लिए हमारे बीच से चला गया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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