रवीश कुमार के साथ-साथ दिलीप चौबे और गोविन्द सिंह को गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार देने का क्या आधार है?

पत्रकारिता के सरकारी पुरस्‍कारों का पैमाना क्‍या होता है? इस बार का गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्‍कार हिंदी के जिन चार लोगों को दिया जा रहा है, उनमें दो नाम रवीश कुमार और दिलीप चौबे के भी हैं। अगर यह पैमाना एक होता है, तो उसमें एक साथ रवीश और दिलीपजी कैसे फिट बैठ सकते हैं?

टीवी चैनलों में जिन लोगों ने भी कथित तौर पर काम भर की पत्रकारिता की है, उनमें रवीश कुमार के नाम से किसी को परहेज़ नहीं होना चाहिए अलबत्‍ता यह सवाल दीगर है कि वे यदि एनडीटीवी में नहीं होते तब भी क्‍या वही कर पाते। संस्‍था्गत रियायतों और बंदिशों के बीच अपना काम कर ले जाना एक कौशल हो सकता है, लेकिन संस्‍थागत दायरे से बाहर पत्रकारिता की कसौटी पर आंकें तो रवीश भी कमज़ोर नज़र आएंगे। फिलहाल इसे छोड़ दें, तब भी दिलीप चौबे ने सहारा में रहते हुए ऐसा क्‍या किया जिसके लिए उन्‍हें रवीश के साथ वही सम्‍मान दिया जाए?

चौबेजी ने विमल झा के जाने के बाद राष्‍ट्रीय सहारा के पुलआउट ‘हस्‍तक्षेप’ की कमान संभाली थी। ‘हस्‍तक्षेप’ का स्‍वर्णिम दौर उससे काफी पहले था। जो पाठक एक ज़माने में ‘हस्‍तक्षेप’ की फाइलें बनाकर रखते थे, उन्‍होंने भी बीते सात साल में ‘हस्‍तक्षेप’ पढ़ना छोड़ दिया, सिवाय उनके जो इसमें छप जाते थे। शुरुआत में दिलीपजी इसे निकालने में इतना निरुपाय महसूस करते थे कि पूरा का पूरा अंक ही वे आउटसोर्स कर देते थे। ये दिलीपजी के काल में ही हुआ कि राष्‍ट्रीय सहारा का आधिकारिक संपादकीय भी आउटसोर्स किया जाने लगा। कुल मिलाकर दिलीपजी के कार्यकाल में ‘हस्‍तक्षेप’ का जितना पतन हुआ, वह अभूतपूर्व है। फिर उन्‍हें किस बात का पुरस्‍कार? क्‍या पांचजन्‍य की पुरानी सेवाओं के लिए?

गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्‍कार के लिए तीसरा नाम गोविंद सिंह का आ रहा है जो पिछले कुछ बरसों से पत्रकारिता के शिक्षक हैं। क्‍या उन्‍हें यह पुरस्‍कार शिक्षण क्षेत्र से औपचारिक रूप से जुड़ने से पहले की नौकरियों के लिए दिया जा रहा है, जिनमें एक अमेरिकी विदेश विभाग की पत्रिका स्‍पैन भी थी? सरकारी पत्रकारिता पुरस्‍कारों का रहस्‍य बड़ा अजीब है।

अभिषेक श्रीवास्तव

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