अभिव्यक्ति का धर्म और जाति

@ अरुण कुमार त्रिपाठी

अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद भारतीय समाज भगवान और देवी, देवताओं के मानवीकरण का समाज रहा है। इसीलिए यहां राम, कृष्ण और शिव को लेकर लोकजीवन में जितनी हंसी-मजाक की बातें हैं, उतनी किसी मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के बारे में नहीं हैं। पर आज हम मानवीकरण की उस प्रक्रिया को पलट रहे हैं और नए-नए ईश्वर बना रहे हैं। यहीं ईशनिंदा का अपराध नया रूप लेता है। इसकी शुरुआत नब्बे के दशक से शुरू हुए वैश्वीकरण ने किया है। मीडिया ने अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा और कुपोषण की खबर लेने और दाभोलकर जैसे लोगों की मदद करने के बजाय आर्थिक रूप से निराश लोगों का भयादोहन कर अंधविश्वास के आधार पर कमाई करने वालों की ही मदद की है।

ऐसे में सवाल यह है कि हम कैसा विमर्श करें, जिससे बहुसांस्कृतिक समाज में टकराव कम से कम हो और बात भी चलती रहे? स्पष्ट तौर पर अब समय आ गया है कि अगर लोकतंत्र को उसके मूल अधिकारों के साथ लंबे समय तक चलाना है, तो अस्मिताओं के विमर्श और उसकी राजनीति को व्यापक मानवीय विमर्श और हितों की राजनीति में विलीन करना होगा। हमें अपने बारे में ही सोचने के बजाय पराए हितों के बारे में सोचना होगा।

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