कारपोरेट मीडिया और खबरों की विश्वसनीयता

के.पी.सिंह, उरई, जालौन

media vs prमीडिया कारपोरेट हुई तो एचआर पालिसी बनी जिसके मुख्य घटकों में ट्रेनिंग, ट्रांसफर, इन्क्रीमेंट व एलाउंस शामिल हैं। जिलों में पहले वहां के इतिहास, भूगोल से सुपरिचित संवाददाता कामयाब माने जाते थे लेकिन ट्रांसफर पालिसी के तहत तय हुआ कि जिले में बाहर से पत्रकार को भेजा जायेगा और वह भी मात्र दो तीन साल रहेगा। इसके बाद दूसरी जगह उसका तबादला कर दिया जायेगा। एचआर पालिसी की मजबूरी के साथ-साथ इस व्यवस्था के पीछे दलील यह थी कि पुराने खुर्राट पत्रकार अपने जिले में मठाधीश हो जाते हैं और अपने न्यस्त स्वार्थों के चश्मे से खबर को देखते हैं। बाहर का संवाददाता नियुक्त होगा तो इस तरह की तमाम गंदगियां दूर हो जायेंगी लेकिन यह सदाशयता खोखली साबित हुई।

आज हालत यह है कि गैर जिले के संवाददाता की नियुक्ति के प्रयोग ने पेड न्यूज और ब्लेकमेलिंग की पराकाष्ठा कर दी है। जब लोकल का संवाददाता होता था तो उसे डर रहता था कि अगर उसने अपने यहां के किसी सफेदपोश का कालर उसकी जेब से कुछ ऐंठने के लिये खींचा तो वह बुरी तरह बदनाम हो जायेगा। इसलिये आसानी से ब्लेकमेलिंग करने का साहस उसे नहीं होता था। पुराने और लोकल पत्रकार की व्यक्तिगत इमेज भी थी जिसके कारण वह बेरोजगार और विकलांगों के संगठन तक से पैसे लेने की बात सोच भी नहीं सकता था।

दरअसल बाजारवाद औपनिवेशिक इरादों का नया रूप है और इसके काम करने के तरीके भी नये हैं। दूसरे देश को चारागाह के रूप में इस्तेमाल करने के लिये वहां उसके अपने विचार विवेक को समाप्त करना उपनिवेशवादी ताकतों का मुख्य लक्ष्य होता है। इसके तहत सबसे पहले बाजार ने शिक्षा प्रणाली को अनुकूल बनाया। आईआईटी और आईआईएम का ऐसा नशा नौनिहालों पर चढ़ाया कि वे तकनीकी शिक्षा में गर्क हो गये और मानविकी व समाज विज्ञान के विषयों का एक तरीके से उन्होंने परित्याग किया। इससे विचार विवेक शून्य पीढ़ी तैयार करने में उसे मदद मिली। बाजार इसे अपने तरीके से मोल्ड करने में कितना सफल है यह बताने के लिये कोई सबूत देने की जरूरत नहीं है। अभी तक पत्रकारिता में सामाजिक सरोकार की भावना जिंदा थी जो बाजार के लिये सबसे बड़ी बाधा थी। इस कारण पत्रकारिता को प्रतिबद्घता शून्य करने के लिये इसमें एचआर पालिसी लागू की गयी।

भारत की वर्नाकुलर पत्रकारिता अंग्रेजी और विदेशी पत्रकारिता के उत्कृष्ट बाजारीय सिद्घान्तों से भी परे है। वहां यह माना जाता है कि जिला प्रमुख जैसी जिम्मेदारी निभाने वाला पत्रकार कंपनी का सबसे अहम ब्रांड एम्बेसडर है। इस कारण उसका चुनाव करते समय यह ध्यान रखने की जरूरत महसूस की जाती है कि वह औसत से अधिक बुद्घिमान हो और ऐसी इंटैलिजेंसीया के लिये पत्रकारिता वरेण्य हो। इसके लिये समुचित वेतन और ईमानदारी से सारे भत्ते देने का प्रावधान रहता है लेकिन हिन्दी मीडिया हाउस मुनाफे का एक भी पैसा काम की गुणवत्ता के लिये खर्च नहीं करना चाहते। इस कारण वेतन देने में कंजूसी बरतते हैं और उनके यहां नयी पीढ़ी में वह पत्रकार बनता है जो सफाई कर्मचारी तक के इंटरव्यू में रिजेक्ट हो जाता है। यह पत्रकार अनुभवी भी नहीं होता क्योंकि अब जो ट्रेंड चला है उसमें 22 से 28 वर्ष की उम्र के लडक़े ही जिला प्रमुख बना दिये जाते हैं और 40 वर्ष होने के पहले ही वह संपादक बन जाता है।

आज के उपभोक्तावादी युग में आकांक्षायें पूरी करने के लिये नौजवान पहले दिन से ही किसी कीमत पर पैसा बनाने की भावना दिल में बसा लेते हैं और जिला प्रमुख बनने वाले नौजवान भी इसके अपवाद नहीं होते। नतीजतन आज कारपोरेट अखबारों के यह ब्रांड एम्बेसडर जिलों में किसी भी लोकलाज की परवाह न करते हुए खाकी को भी शर्मिंदा करने वाली बेशर्मी और बेहयायी से उगाही करने में लगे हैं। इससे पत्रकारिता का जो चेहरा आम समाज में पहचाना जा रहा है वह बेहद भ्रष्ट और ब्लैकमेलर का चेहरा है। जाहिर है कि अखबार या चैनल अपने नंबर को लेकर चाहे जो दावा करे लेकिन जब रिक्शा वाला तक यह कहने लगा कि पत्रकार चोर होते हैं तो अब खबरों की विश्वसनीयता क्या होगी इसका अनुमान लगाया जा सकता है। आज मीडिया में इस बात की चर्चा तो बहुत हो रही है कि मुनाफावाद के कारण सारे मूल्य मर्यादाओं को नष्ट किया जा रहा है लेकिन मीडिया यह नहीं बता रही कि इसमें सबसे बड़ा योगदान खुद उनका अपना है।

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