पीड़ित तो होता ही है दम तोड़ने और टीवी स्टूडियो की वार्ता के लिए

डॉ.वर्तिका नंदा

महिला पत्रकार के साथ दुष्कर्म
महिला पत्रकार के साथ दुष्कर्म

पुलिस और सत्ता के बारे में कुछ भी कहना अपना और आपका समय और भावनाओं को बर्बाद करना है। पर हां, मीडिया के बारे में जरूर कह सकती हूं। मीडिया में समझ या परिपक्वता की कोई कमी नहीं पर कई बार वह अपनी जगह से कुछ सरक जाता लगता है। लीजिए – पढ़िए मुझे क्या कहना है।

मुबंई की रेप पीड़ित किस अस्पताल के किस कमरे में है, कब से इंटर्न है, किस तरह की पत्रिका में काम करती है – वगैरह बताकर मेरे कुछ साथियों ने किसका भला किया है। यह काम तो पुलिस किया करती थी पहले। आप क्यों कर रहे हैं। क्या हमें यह ख्याल आता है कि अक्सर त्रासदी से गुजरने के बाद असल में एक बड़ी त्रासदी का समय शुरू होता है जिसमें पुलिस और कानून पीड़ित को भरपूर हराने और थकाने में पीछे नहीं छूटते। क्या हमारा काम पीड़ित की निजता को बचा कर एक बड़ी मिसाल पैदा करना नहीं है। एक ऐसे समय में जब कि हमारे देश के कई बड़े नेता महिलाओं को तार-तार करने की जंग छेड़े हैं, मीडिया को और सजग होना होगा। जब हम यह कह चुके हैं कि मीडिया आत्म-नियामक शैली में ही बेहतर है तो हमें बिना किसी के याद दिलाये उस मॉडल को सफल करके दिखाना भी चाहिए। वो लड़की बहादुर हो सकती है, समय पर खाना खा सकती है, बात कर सकती है पर इसका मतलब यह नहीं कि रेप से उस पर जरा असर नहीं पढ़ा। मुझे आज मौलाना आजाद कॉलेज की रेप पीडित याद आ गई जिसने रेप होने के बावजूद कुछ दिनों बाद अपनी परीक्षाएं दी थीं और तब उस पर एक अखबार ने बहुत शर्मनाक टिप्पणी की थी।

कृपया पीड़ितों को जीने दीजिए। उनके परिवारों को लेने दीजिए सांस।

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डॉ.वर्तिका नंदा

आइए, हम अपनी अतिरिक्त जिज्ञाएं अपराधियों के बारे में दिखाएं जिन्हें बचाने के लिए आतुर रहती है हमेशा एक बड़ी भीड़। जिन्हें लेकर मानवाधिकार के नाम पर बहुंतों के आंसू नहीं थमते। ऐसा क्या है कि अपराधी के बारे में दो शब्द कहने से पहले हम सब डर जाते हैं। हम स्वीकार कर ही चुके हैं कि अपराधी ताकत से लैस होता है और पीड़ित तो होता ही है दम तोड़ने और टीवी स्टूडियो की वार्ता के लिए।

हमें सारे शोर और दबावों के बीच पीड़ित को मजबूत बनाना है। हम पुलिस और आयोगों जैसे न हैं, न होंगे। इस देश के बेहद लिजलिजे माहौल में अब अगर किसी से कुछ उम्मीद बाकी रह गई है तो वह सिर्फ मीडिया से ही है। बेहतर हो जिन मुद्दों पर दिल की जरूरत हो, वहां दिल ही का इस्तेमाल हो और दिमाग की मुहर हो। ऐसा हो सकता है न!!!

(डॉ.वर्तिका नंदा के फेसबुक वॉल से साभार)

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