पत्र-पत्रिकाओं में आफिसरों की आफिसरशाही !

रमेश यादव

जब से ipad 4 हाथ लगा है,पत्र-पत्रिकाओं को कंछी देखकर आगे बढ़ जाता हूँ.
टीवी अंतिम बार मई 2013 में देखें थे.
आज कई पत्रिकाएँ लाये,उनमें इंडिया टुडे भी है.
जब भी किसी पत्रिका को ख़रीदता हूँ,पहले देखता हूँ,इसका चालक कौन है..?
यदि अंतराल पर देखता हूँ तो चेक करता हूँ कि अब तक क्या बदलाव हुआ है.
ख़ैर,
इंडिया टुडे को पलटते समय हमारी निगाह
प्रधान संपादक (अरुण पुरी) के बाद
ग्रुप चीफ़ एग्जीक्यूटिव आफिसरों (आशीष बग्गा)
अौर
ग्रुप सिनर्जी और क्रिएटिव आफिसरों (कली पुरी)
पर आ कर ठहर गयी ..
उक्त दोनों आफिसरों के मसले पर दिमाग़ ने दिल का दही बना दिया.
सोच रहा हूँ
पत्र-पत्रिकाओं और ‘में’ पत्रकारों और संपादकों को जन्म दिया है.
ये आॅफिसर कब से पैदा होने लगे…
इनकी पैदाइश के पीछे की कथा-कहानी क्या है…?
इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है …?
मालिकान
पूँजी का प्रबंधन-संचयन
या
फिर
पत्रकारों-संपादकों पर नकेल कसने के लिए ‘नकेलकसवा’
इतिहास बताता है कि
पत्र-पत्रिकाओंमें
संपादक की जो हैसियत होती थी,वो मालिक की नहीं.
‘आज’
के
संपादक
पराड़कर
जी हुआ करते थे..
शिव प्रसाद गुप्त (मालिक) को यदि अख़बार से कोई शिकवा-शिकायत होती थी तो संपादक के नाम पत्र लिखकर अपनी भावना व्यक्त करते थे.
संपादक अौर मालिक के बीच इस तरह का संबंध हुआ करता था.
आज
‘आज’ भी बदल गया है अौर बाक़ी भी.
लेकिन
संपादक नामक जीव के खात्मा के पीछे कौन से वाजिब कारण है…?
कोई बतायेगा
कि
बतायें हम …!

फ़िलहाल इतना ही…समय मिलेगा और मन करेगा तो विस्तार से बाद में कभी …!

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