वनिता, गृहशोभा, मेरी सहेली वीमेंस एरा जैसी पत्रिकाएं एक कम्प्लीट शोरुम

महिला आधारित पत्रिकाओं पर मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार की तीन टिप्पणियाँ :

mag-vineeta

  • आप कहते हैं टीवी सीरियल स्त्रियों को बददिमाग और मर्दों की चाटुकार बनाकर छोड़ देते हैं. वो पुरुषों के लिए विटामिन की गोली से ज्यादा नहीं हैं लेकिन आप मुझे बताइए वनिता,गृहशोभा, मेरी सहेली और वीमेंस एरा जैसी पत्रिकाएं इससे अलग क्या करती हैं ? सरोकार की तो गोली मारिए, क्या कभी वो धंधे के लिए भी स्त्री अधिकारों के लिए सामने आएंगे जिसे कि हम मीडिया इन्डस्ट्री में कार्पोरेट गवर्नेंस कहते हैं. नहीं तो फिर आप इस पर गंभीरता से बात कीजिए न कि ये पत्रिकाएं कितनी मजबूती से देश की लाखों स्त्रियों की ऐसी माइंड सेट तैयार करते हैं जिसके अनुसार पति के लिए बिस्तर में जाने से पहले सजना, लंपट औलाद के हरेक अपमान को सहते जाना, बदमिजाज ससुर के आगे मत्था टेक देना कभी गलत नहीं लगता. आफ कहते हैं स्त्रियां विरोध क्यों नहीं करती, इन पत्रिकाओं से बनी माइंडसेट के तहत जब कुछ गलत ही नहीं लगता तो फिर विरोध किस बात का करेगी ?


  • मेरी सहेली,वनिता,गृहशोभा वूमेन्स एरा जैसी महिला पाठकों को समर्पित पत्रिकाओं की एक लंबी फेहरिस्त और करोड़ों का कारोबार है. जाहिर है इससे एक तरफ लाखों पाठक जुड़ीं/जुड़े हैं तो दूसरी तरफ स्त्री मीडियाकर्मी इनका संपादन करती हैं. अब जबकि चारों तरफ स्त्रियों के पक्ष में माहौल बनाने की बात हो रही है तो जरुरी है कि ऐसी पत्रिकाओं पर भी बात हो और ये समझने की कोशिश हो कि क्या ये पत्रिकाएं स्त्री को चूड़ी,बिंदी,मेंहदी,लंहगे,पार्लर, नेल पॉलिश,बूटिक में फंसाए रखने के अलावे भी कुछ टिप्स देती हैं. डाइनिंग टेबल पर स्त्री द्वारा तैयार की गई डिशेज देखकर उनके बच्चे,पति और सास-ससुर कैसे खुश हो जाए, बेडरुम को कैसे संवारें और साथ-साथ खुद भी संवरें कि पति को सपने में भी पत्नी छोड़ किसी दूसरी स्त्री का ध्यान न आए के फंड़े हों..इन सबके अलावे स्त्री की कोई दुनिया हो सकती है जिस पर बात करने की जरुरत है और ये पत्रिकाएं सतर्क ढंग से अपने को अलग रखती है ? आदर्श पत्नी के नाम पर उंची नस्ल की गाय-गोरु बनाने के अलावे ये पत्रिकाएं स्त्री के पक्ष में क्या काम करती है, इस पर बात की जाए तो कई दिलचस्प पहलू निकलकर सामने आएंगे. जनाना डब्बे की शक्ल में निकलनेवाली इन पत्रिकाओं का असल मकसद मर्द समाज से प्रशंसा प्राप्त करने के अलावे कुछ नहीं है, बॉस को रिझाने के आगे आधुनिकता की खिड़की बंद हो जाती है, स्त्री को समर्पित ये पत्रिकाएं पितृसत्तात्मक समाज की जड़े कितनी मजबूत करती हैं, ये सब ऐसे सवाल हैं जो स्त्री( संपादक)-स्त्री( पाठक) की दुश्मन है जैसे वनलाइनर में न पड़ते हुए भी काफी मुद्दे छेड़ जाता है. बुनाई विशेषांक के आगे क्या धुनाई विशेषांक भी संभव है..जिसमे जाहिर है जो स्त्री के विरोध में है उस पर बात हो, आप ही बताइए.


  • स्त्री पाठकों पर आधारित गृहशोभा,वनिता,सहेली, वूमेन्स एरा जैसी पत्रिकाएं सिर्फ पत्रिकाएं भर नहीं है. वो एक कम्प्लीट शोरुम है जिसमें स्त्रियों को एक खाउ-पकाउ-सजाउ जीव के रुप में पेश किया जाता है. इन दिनों इन पत्रिकाओं में फॉल्स जैकेट या कई बार तो सीधे कवर पर ही सीरियलों और साज-सिंगार की वस्तुओं पर विज्ञापन करने का प्रचलन खूब बढ़ा है. ये पत्रिकाएं मर्द समाज से उन्हें कितना मुक्त कराएंगी, ये अलग मसला है लेकिन इतना जरुर है लेकिन स्त्रियों के कंधे पर दैत्याकार बाजार जरुर सवार है और उसकी हर इच्छाओं को पूरा करने के लिए उसे लगातार इसमें घसीटा जाता है.

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