स्वामी विवेकानंद के रायपुर में डेढ़ वर्ष

स्वामी विवेकानंद
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अनामिका

स्वामी विवेकानंद
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मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ इस बात का गौरव अनुभव करता है कि स्वामी विवेकानंद ने यहां डेढ़ वर्ष से अधिक का समय व्यतीत किया. हालांकि जिस कालखंड में उन्होंने अपने जीवन के महत्वपूर्ण समय व्यतीत किये तब वे स्वामी विवेकानंद नहीं थे बल्कि किशोरवय के नरेन्द्रनाथ दत्त थे जो अपने परिवार के साथ रायपुर आये थे. यहां रहते हुये उनके भीतर जो संस्कार उत्पन्न हुये और उनके ज्ञान का लोहा माना गया जिसने बाद में उन्हें स्वामी विवेकानंद के रूप में संसार में प्रतिष्ठापित किया. यह हम सबके लिये गौरव की बात है. 1877 ई. में लगभग 14 वर्ष की आयु में कलकत्ता से रायपुर के लिये आना था तब आज की तरह सीधी रेललाईन सेवा उपलब्ध नहीं थी और तब छत्तीसगढ़ स्वतंत्र राज्य भी नहीं था. छत्तीसगढ़ तब मध्यप्रदेश का एक विशिष्ट अंचल था जिसके कारण मध्यप्रदेश की विशिष्ट पहचान हुआ करती थी. उस समय रेलगाड़ी कलकत्ता से इलाहाबाद, जबलपुर, भुसावल होते हुए बम्बई जाती थी। उधर नागपुर भुसावल से जुड़ा हुआ था, तब नागपुर से इटारसी होकर दिल्ली जाने वाली रेललाइन भी नहीं बनी थी। नरेन्द्रनाथ जिन्हें बाद में संसार ने एक आलौकिक युवा के रूप में जाना और वे हमेशा के लिये स्वामी विवेकानंद हो गये, कि स्मृति हमारे लिये धरोहर है. ऐसे महान व्यक्तित्व का किशोरावस्था में समय गुजारना इतिहास की दूष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है.

नरेन्द्रनाथ की यह रायपुर-यात्रा इसलिए भी विशेष महत्वपूर्ण हो जाती है कि इस यात्रा में उन्हें अपने जीवन में पहली भाव-समाधि का अनुभव हुआ था। वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी रायपुर में उनके गुजारे हुये दिनों का उल्लेख करते हुये उनके कुछ जीवनीकारों ने लिखा है कि नरेन्द्र एवं उनके घर के लोग नागपुर से बैलगाड़ी द्वारा रायपुर गये, पर नरेन्द्र को इस यात्रा में जो एक अलौकिक अनुभव हुआ, वह संकेत करता है कि वे लोग जबलपुर से ही बैलगाड़ी द्वारा मण्डला, कवर्धा होकर रायपुर गये हों। उनके कथनानुसार, इस यात्रा में उन्हें पन्द्रह दिनों से भी अधिक का समय लगा था। उस समय पथ की शोभा अत्यन्त मनोरम थी। रास्ते के दोनों किनारों पर पत्तों और फूलों से लदे हुए हरे हरे सघन वनवृक्ष होते। भले ही नरेन्द्र नाथ को इस यात्रा में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, तथापि, उनके ही शब्दों में- ‘वनस्थली का अपूर्व सौन्दर्य देखकर वह क्लेश मुझे क्लेश ही नहीं प्रतीत होता था। अयाचित होकर भी जिन्होंने पृथ्वी को इस अनुपम वेशभूषा के द्वारा सजा रखा है, उनकी असीम शक्ति और अनन्त प्रेम का पहले-पहल साक्षात परिचय पाकर मेरा हृदय मुग्ध हो गया था।’ उन्होंने बताया था -‘वन के बीच से जाते हुए उस समय जो कुछ मैंने देखा या अनुभव किया, वह स्मृतिपटल पर सदैव के लिए दृढ़ रूप से अंकित हो गया है। विशेष रूप से एक दिन की बात उल्लेखनीय है। उस दिन हम उन्नत शिखर विन्ध्यपर्वत के निम्न भाग की राह से जा रहे थे। मार्ग के दोनों ओर बीहड़ पहाड़ की चोटियां आकाश को चूमती हुई खड़ी थीं। तरह तरह की वृक्ष-लताएं, फल और फूलों के भार से लदी हुई, पर्वतपृष्ठ को अपूर्व शोभा प्रदान कर रही थीं। अपनी मधुर कलरव से मस्त दिशाओं को गुंजाते हुए रंग-बिरंगे पक्षी कुंज कुंज में घूम रहे थे, या फिर कभी-कभी आहार की खोज में भूमि पर उतर रहे थे। इन दृश्यों को देखते हुए मैं मन में अपूर्व शान्ति का अनुभव कर रहा था। धीर मन्थर गति से चलती हुई बैलगाडिय़ां एक ऐसे स्थान पर आ पहुंची, जहां पहाड़ की दो चोटियां मानों प्रेमवश आकृष्ट हो आपस में स्पर्श कर रही हैं। उस समय उन श्रृंगों का विशेष रूप से निरीक्षण करते हुए मैंने देखा कि पासवाले एक पहाड़ में नीचे से लेकर चोटी तक एक बड़ा भारी सुराख है और उस रिक्त स्थान को पूर्ण कर मधुमक्खियों के युग-युगान्तर के परिश्रम के प्रमाणस्वरूप एक प्रकाण्ड मधुचक्र लटक रहा है। उस समय विस्मय में मग्न होकर उस मक्षिकाराज्य के आदि एवं अन्त की बातें सोचते-सोचते मन तीनों जगत के नियन्ता ईश्वर की अनन्त उपलब्धि में इस प्रकार डूब गया कि थोड़ी देर के लिए मेरा सम्पूर्ण बाह्य ज्ञान लुप्त हो गया। कितनी देर तक इस भाव में मग्न होकर मैं बैलगाड़ी में पड़ा रहा, याद नहीं। जब पुन: होश में आया, तो देखा कि उस स्थान को छोड़ काफी दूर आगे बढ़ गया हूं। बैलगाड़ी में मैं अकेला ही था, इसलिए यह बात और कोई न जान सका।’ इस बात का विस्तार से उल्लेख श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग, तृतीय खण्ड, द्वितीय संस्करण, नागपुर, पृष्ठ67-68 पर हुआ है.

रायपुर में अच्छा विद्यालय नहीं था। इसलिए नरेन्द्रनाथ पिता से ही पढ़ा करते थे। यह शिक्षा केवल किताबी नहीं थी। पुत्र की बुद्धि के विकास के लिए पिता अनेक विषयों की चर्चा करते। यहां तक कि पुत्र के साथ तर्क में भी प्रवृत्त हो जाते और क्षेत्र विशेष में अपनी हार स्वीकार करने में कुण्ठित न होते। उन दिनों विश्वनाथ बाबू के घर में अनेक विद्वानों और बुद्धिमानों का समागम हुआ करता तथा विविध सांस्कृतिक विषयों पर चर्चाएं चला करतीं। नरेन्द्र नाथ बड़े ध्यान से सब कुछ सुना करते और अवसर पाकर किसी विषय पर अपना मन्तव्य भी प्रकाशित कर देते। उनकी बुद्धिमता तथा ज्ञान को देखकर बड़े-बूढ़े चमत्कृत हो उठते, इसलिए कोई भी उन्हें छोटा समझ उनकी अवहेलना नहीं करता था। एक दिन ऐसी ही चर्चा के दौरान नरेन्द्र ने बंगला के एक ख्यातनामा लेखक के गद्य-पद्य से अनेक उद्धरण देकर अपने पिता के एक सुपरिचित मित्र को इतना आश्चर्यचकित कर दिया कि वे प्रशंसा करते हुए बोल पड़े- ‘बेटा, किसी न किसी दिन तुम्हारा नाम हम अवश्य सुनेंगे।’ कहना न होगा कि यह मात्र स्नेहसिक्त अत्युक्ति नहीं थी- वह तो एक अत्यन्त सत्य भविष्यवाणी थी। नरेन्द्र नाथ बंग-साहित्य में अपनी चिरस्थायी स्मृति रख गये।

‘युगनायक विवेकानंद’(बंगला), प्रथम खण्ड, कलकत्ता, पृ. 55-57 में उल्लेख मिलता है कि नरेन्द्र में पहले से ही पाकविद्या के प्रति स्वाभाविक रूचि थी। रायपुर में हमेशा अपने परिवार में ही रहने के कारण तथा इस विषय में अपने पिता से सहायता प्राप्त करने तथा उनका अनुकरण करने से वे इस विद्या में और भी पटु हो गये। रायपुर में उन्होंने शतरंज खेलना भी सीख लिया तथा अच्छे खिलाडिय़ों के साथ वे होड़ भी लगा सकते थे। दि लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानन्द, अद्वैत आश्रम, मायावती, भाग 1, पांचवें संस्करण के पृष्ठ 42-43 में यह भी उल्लेख मिलता है कि रायपुर में ही विश्वनाथ बाबू ने नरेन्द्र को संगीत की पहली शिक्षा दी। विश्वनाथ स्वयं इस विद्या में पारंगत थे और उन्होंने इस विषय में नरेन्द्र की अभिरूचि ताड़ ली थी। नरेन्द्र का कण्ठ-स्वर बड़ा ही सुरीला था। वे आगे चलकर एक सिद्धहस्त गायक बने थे, पर उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष भी रायपुर में ही विकसित हुआ।

डेढ़ वर्ष रायपुर में रहकर विश्वनाथ सपरिवार कलकत्ता लौट आये। तब नरेन्द्र का शरीर स्वस्थ, सबल और हृष्ट-पुष्ट हो गया और मन उन्नत। उनमें आत्मविश्वास भी जाग उठा था और वे ज्ञान में भी अपने समवयस्कों की तुलना में बहुत आगे बढ़ गये थे। किन्तु बहुत समय तक नियमित रूप से विद्यालय में न पढऩे के कारण शिक्षकगण उन्हें ऊपर की (प्रवेशिका) कक्षा में भरती नहीं करना चाहते थे। बाद में विशेष अनुमति प्राप्त कर वे विद्यालय की इसी कक्षा में भरती हुए तथा अच्छी तरह से पढ़ाई कर सभी विषयों को थोड़े ही समय में तैयार करके उन्होंने 1879 में परीक्षा दी। यथासमय परीक्षा का परिणाम निकलने पर देखा गया कि वे केवल उत्तीर्ण ही नहीं हुए हैं, प्रत्युत उस वर्ष विद्यालय से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले वे एकमात्र विद्यार्थी हैं। यह सफलता अर्जित कर उन्होंने अपने पिता से उपहार स्वरूप चांदी की एक सुन्दर घड़ी प्राप्त की थी।

प्राप्त संदर्भ में दो उल्लेखनीय घटनाओं का उल्लेख नरेन्द्रनाथ के जीवन का मिलता है. विश्वनाथ ने पुत्र को संगीत के साथ-साथ पौरुष की भी शिक्षा दी थी। एक समय नरेन्द्र नाथ पिता के पास गये और उनसे पूछ बैठे-‘आपने मेरे लिए क्या किया है?’ तुरन्त उत्तर मिला-‘जाओ दर्पण में अपना चेहरा देखो!’ पुत्र ने तुरन्त पिता के कथन का मर्म समझ लिया, वह जान गया कि उसके पिता मनुष्यों में राजा हैं। एक दूसरे समय नरेन्द्र ने अपने पिता से पूछा था कि परिवार में किस प्रकार रहना चाहिए, अच्छी वर्तनी का माप-दण्ड क्या है? इस पर पिता ने उत्तर दिया था-‘कभी आश्चर्य व्यक्त मत करना!’ क्या यह वही सूत्र था, जिसने नरेन्द्र नाथ को विवेकानन्द के रूप में समदर्शी बनाकर, राजाओं के राजप्रासाद और निर्धनों की कुटिया में समान गरिमा के साथ जाने में समर्थ बनाया था।रायपुर में घटी और दो घटनाएं नरेन्द्र नाथ के व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण हैं। साथ ही उपर्युक्त विवरण प्रदर्शित करते हैं कि नरेन्द्र के व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास में रायपुर का कितना बड़ा योगदान रहा है।

(लेखिका युवा पत्रकार है )

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